________________ 10] [दशवकालिकसूत्र प्रस्तुत में चारित्रधर्म ही उत्कृष्टमंगलरूप से अभीष्ट यद्यपि पहले बताए हुए अन्य लोकोत्तर धर्म भी मंगलरूप ही हैं, परन्तु यहाँ उत्कृष्ट मंगलरूप भावधर्म और उसमें भी विशेषतः सर्वविरति रूप चारित्रधर्म रूप ही अभीष्ट है। ___ कहा जा सकता है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र ये तीनों'• अथवा श्रुतधर्म और चारित्रधर्म ये दोनों मिल कर मोक्षप्राप्ति के कारण होने से उत्कृष्ट मंगल रूप हैं, फिर चारित्र धर्म या सम्यक चारित्र को ही यहाँ उत्कृष्ट मंगल के रूप में ग्रहण क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि संवर और निर्जरा रूप चारित्र धर्म कर्मों का सर्वथा क्षय (मोक्ष प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है, और जब सम्यक्चारित्र आएगा, तो उससे पूर्व सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का आना अनिवार्य है / इसीलिए यहाँ चारित्रधर्म को ही उत्कृष्ट मंगल के रूप में ग्रहण किया गया है / '' __अहिंसा-संयम-तप रूप चारित्रधर्मः उत्कृष्ट मंगलरूप-चारित्र धर्म का लक्षण प्राचार्य जिनदास महत्तर तथा अन्य प्राचार्यों ने कहा है-असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति 2 इसी कारण यहाँ अहिंसा, संयम और तप इन तीनों को चारित्रधर्म में निर्दिष्ट किया गया है। यों तो चारित्र में पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति आदि माने जाते हैं / परन्तु इन सबका समावेश अहिंसा और संयम में हो जाता है। आचार्य जिनदास महत्तर कहते हैं कि अहिसा के ग्रहण से पांचों महावत गृहीत हो जाते हैं। संयम और तप भी अहिंसा-भगवती के दो चरण हैं। 3 अहिंसा भगवती की सम्यक् उपासना भी तभी हो सकती है, जब नवीन कर्मों के आगमन (पाश्रव) का निरोध (संवर) और कर्मों की निर्जरा (तपस्या) की जाए / यही कारण है कि यहाँ अहिंसा के साथ, उसके पालन में सहायक संयम और तप को उत्कृष्ट मंगलमय माना गया है / मंगल : स्वरूप, प्रकार और उत्कृष्ट मंगल—'मंगल' शब्द भारतीय संस्कृति में इतना अधिक प्रचलित है कि आस्तिक और नास्तिक प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य को निर्विनरूप से पूर्ण करने, सफल करने तथा यशस्वी बनाने हेतु उसके प्रारम्भ में मंगल करता है। इस दृष्टि से मंगल का निर्वचन कई प्रकार से किया गया है / प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने मंगल का निर्वचन किया है जिससे हित होता हो, कल्याण सिद्ध होता हो, वह मंगल है / एक प्राचार्य ने मंगल का अर्थ किया है जो मंग अर्थात सुख को लाता है वह मंगल है / 15 संसार में निर्विघ्न कार्यसिद्धि, अपने हित (स्वार्थ) के लिए एवं . 10. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः। ---तत्त्वार्थसूत्र अ. 1, सू. 1 11. “नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हंति चरणगुणा / अगणिस्स नत्थि मोक्खो, नस्थि अमोक्खस्स निब्वाण / / " --उत्तराध्ययन. अ. 28, मा. 30 12. (क) असंजमाउ नियत्ती, संजमम्मि य पवित्ती। —जि. चू., पृ. 17 (ख) असंजमे नियत्ति च संजमे पवित्ति च जाण चारित्त / / 13. अहिंसागहणे पंचमहब्बयाणि गहियाणि भवंति, संजमो पुण तीसे चेव अहिंसाए / 14. 'अहिंसातवसंजमलक्खणे धम्मे ठिपो तस्स एस निद्दे सोत्ति।' –जि. चू., पृ. 15 15. (क) मंग्यते हितमनेनेति मंगलं, मंग्यतेऽधिगम्यते साध्यते इति / ' —हारि. वत्ति, पत्र 3 (ख) मंगं सुखं लातीति मंगलम् / - नन्दीसूत्र मलयवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org