________________ पढमं अज्झयणं : प्रथम अध्ययन दुमपुफिया : द्रमपुष्पिका 1. धम्मो मंगलमुक्किट्ट, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो // 1 // [1] धर्म उत्कृष्ट (सर्वोत्तम) मगल है / उस धर्म का लक्षण है-अहिंसा, संयम और तप / जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है उसे देव भी नमस्कार करते हैं। विवेचन-अन्य धर्म और उत्कृष्टमंगलरूप प्रस्तुत धर्म-'धृञ् धारणे' धातु से धर्म शब्द निष्पन्न होता है / धर्म का अर्थ निर्वचन की दृष्टि से होता है-धारण करना / संसार में धारण करने वाले अनेक पदार्थ हैं। उन सबको धर्म नहीं कहा जा सकता। इसलिए जैनाचार्यों ने धर्म के मुख्यतया दो प्रकार बताए हैं-द्रव्यधर्म और भावधर्म / 2 द्रव्यधर्म के अस्तिकायधर्म, इन्द्रियधर्म आदि अनेक भेद हैं। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, ये अवस्थाएं द्रव्यों को धारण करके रखती हैं, अथवा द्रव्य के जो पर्याय हैं, वे द्रव्यधर्म कहलाते हैं। यथा-गति में सहायक होना, स्थिति में सहायक होना, अवकाश देने में सहायक होना, पूर्ति करने तथा गलने सड़ने के स्वभाव से सम्पन्न होना तथा जानने-देखने के उपयोग के स्वभाव से युक्त होना, ये पांच अपने-अपने अस्तित्व या स्वभाव को स्थिर (धारण करके) रखने की वाले हैं। इसलिए 'अस्तिकायधर्म' कहलाते हैं / तथा पांचों इन्द्रियाँ अपने-अपने स्वभाव (विषय) में प्रचरण (संचार) करके अपने-अपने स्वभाव (विषय) को धारण करती हैं, इस कारण इस द्रव्यधर्म को इन्द्रियधर्म या प्रचारधर्म कहा जाता है। इसी प्रकार गम्यागम्य, भक्ष्य-अभक्ष्य, पेय-अपेय आदि की कुलपरम्परागत प्रथाओं या परम्पराओं के निर्देशक, गम्यधर्म, अपने-अपने देश के वस्त्राभूषण, खानपान या रहनसहन के रीतिरिवाज जो उस-उस देश के लोगों को एक संस्कृति में स्थिर (धारण करके) रखते हैं, वे देशधर्म हैं। अथवा करादि की व्यवस्था या दण्डादि का विधान, जो नागरिकों को या अर्थव्यस्था को सुव्यवस्थित रखता है, वह राजधर्म है, इसी प्रकार जो गणों को परस्पर एक सूत्र में बांध कर रखता है, वह गणधर्म कहलाता है। ये सब द्रव्यधर्म के अन्तर्गत बताए हैं। 1. सभी सूत्र प्रतियों में तथा मुनिपुण्यविजयजी सम्पादित 'दसवेयालियसुत्त' में 'मुक्कट्ठ' पाठ है / अगस्त्यसिंहचूणि और वुद्धविवरण में 'मुक्कट्ठ' और 'मुक्किट्ठ' दोनों पाठ मिलते हैं। वर्तमान में प्रचलित पाठ 'मुक्किट्ठ' है / इसलिए यहाँ 'मुक्किट्ठ' पाठ ही रक्खा है। -सं. 2. अभिधान रा. कोष भा. 4, पृ. 2667 3. (क) नियुक्तिगाथा 40-42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org