________________ प्रथम अध्ययन : द्रमपुष्पिका] निष्पन्न भोजन होता है / माधुकरी वृत्ति का मूल केन्द्र द्रमपुष्प है, उसके बिना वह निभ नहीं सकती। इसलिए समग्र माधुकरी वृत्ति का विशिष्ट प्रतिनिधित्व करने वाला शब्द 'द्रमपुष्पिका' है / अतएव इस अध्ययन का नाम 'द्रुमपुष्पिका' रखा गया है। * माधुकरी वृत्ति से साधु की भिक्षावृत्ति की उपमा के निष्कर्षसूत्र (क) भ्रमर फूलों से सहज-निष्पन्न रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण भी गृहस्थों के घरों से अपने स्वयं के लिए नहीं निष्पन्न, प्रासुक एषणीय आहार पानी ले / (ख) भ्रमर फूलों को हानि पहुँचाए विना थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, वैसे ही श्रमण गृहस्थ दाता को तकलीफ न हो, इस विचार से अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करे। (ग) भ्रमर अपने उदरनिर्वाह के लिए किसी प्रकार का प्रारम्भ-समारम्भ या जीवों का उपमर्दन नहीं करता; वैसे ही भिक्षाजीवी साधु भी अनवद्यजीवी हो, किसी पचन-पाचन का प्रारम्भ या उपमर्दन न करे / (घ) भ्रमर उतना ही रस ग्रहण करता है, जितना उदरपूर्ति के लिए आवश्यक होता है, वह अगले दिन के लिए कुछ भी संग्रह करके नहीं रखता; वैसे ही श्रमण अपनी संयमयात्रा के लिए जितना आवश्यक हो, उतना ही ले, संचय न करे / (उ) भ्रमर किसी एक ही वृक्ष या फूल से रस ग्रहण नहीं करता, किन्तु अनेक वृक्षों और फूलों से रस ग्रहण करता है, वैसे ही भिक्षाजीवी साधु किसी एक ही (नियत) गाँव, नगर, घर या व्यक्ति से प्रतिबद्ध, आसक्त या आश्रित न होकर, समभाव से सहजभाव से उच्च-नीच-मध्यम कुल, गाँव, घर या व्यक्ति से सामुदानिक भिक्षा से पाहार ग्रहण करे।। * इस प्रकार इस अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य है—उत्कृष्टमंगलरूप अहिंसा-संयम-तपःप्रधानधर्म के आचरण की माधुकरीवृत्ति के माध्यम से सम्भावना / भिक्षु किसी को भी पीड़ा न देकर अहिंसा की, थोड़े-से आहार में निर्वाह करके संयम की, तथा न मिलने या कम मिलने पर यथालाभ संतोष या इच्छानिरोध तप की संभावना को चरितार्थ कर बताता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org