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________________ 'रात्रिभोजनविरमणव्रत' को मूलगुण माना जाय या उत्तरगुण ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि यह उत्तरगुण ही है किन्तु मूलगुण की रक्षा का हेतु होने से मूलगुण के साथ कहा गया है / वस्त्रपात्रादि संयम और लज्जा के लिए रखे जाते हैं अत: वे परिग्रह नहीं हैं। मुच्छा ही परिग्रह है। चोलपट्टकादि का भी उल्लेख है। धर्म की व्यावहारिकता का समर्थन करते हुए कहा है अनन्तज्ञानी भी गुरु की उपासना अवश्य करे (9 / 1 / 11) / देहदक्खं महाफलं' की व्याख्या में कहा है 'दक्खं एवं सहिज्जमाण मोक्खपज्जवसाणफलत्तेण महाफलं / ' बौद्धदर्शन ने चित्त को ही नियंत्रण में लेना आवश्यक माना तो उसका निराकरण करते हुए भी नियंत्रण आवश्यक है।' दार्शनिक विषयों की चर्चाएँ भी यत्र-तत्र हुई हैं। प्रस्तुत चूणि में तत्त्वार्थसूत्र, अावश्यकनियुक्ति, प्रोधनियुक्ति, व्यवहारभाष्य, कल्पभाष्य आदि ग्रन्थों का भी उल्लेख हुआ है। दशवकालिक चूणि (जिनदास) चणि-साहित्य के निर्माताओं में जिनदासगणी महत्तर का मुर्धन्य स्थान है। जिनदासगणी महत्तर के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में विशेष सामग्री अनुपलब्ध है। विज्ञों का अभिमत है कि चणिकार जिनदासगणी महत्तर भाष्यकार जिनभद्र क्षमाश्रमण के पश्चात् और प्राचार्य हरिभद्र के पहले हुए हैं। क्योंकि भाष्य की अनेक गाथाओं का उपयोग चूणियों में हुआ है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्तियों में चूणियों का उपयोग किया है / प्राचार्य जिनदासगणी का समय विक्रम संवत् 650 से 750 के मध्य होना चाहिए। नंदीचूणि के उपसंहार में उसका रचनाममय शक संवत् 598 अर्थात् विक्रम संवत् 733 है-इससे भी यही सिद्ध होता है। आचार्य जिनदासगणी महत्तर की दशवकालिकनियुक्ति के आधार पर दशवकालिक-चणि लिन्दी गई है। यह चणि संस्कृतमिश्रित प्राकृत भाषा में रचित है, किन्तु संस्कृत कम और प्राकृत अधिक है। अपम अध्ययन में एकक, काल, द्रम, धर्म आदि पदों का निक्षेपष्टि से चिन्तन किया है। प्राचार्य शय्यम्भव का जीवनवृत्त भी दिया है। दस प्रकार के श्रमण धर्म, अनुमान के विविध अवयव आदि पर प्रकाश डाला है। द्वितीय अध्ययन में श्रमण के स्वरूप पर चिन्तन करते हुए पूर्व, काम', पद, आदि पदों पर विचार किया गया है। तृतीय अध्ययन में दृढधृतिक के प्राचार का प्रतिपादन है। उसमें महत्, क्षुल्लक, प्राचार--दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, वीर्याचार, अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा, मिश्रकथा, अनाचीर्ण आदि का भी विश्लेषण किया गया है। चतुर्थ अध्ययन में जीव, अजीव, चारित्र, यतना, उपदेश, धर्मफल प्रादि का परिचय दिया है / पञ्चम मध्ययन में श्रमण के उत्तरगुण-पिण्डस्वरूप, भक्तपानपणा, गमनविधि, गोचरविधि, पानकविधि, परिष्ठापनविधि, भोजन विधि, प्रादि पर विचार किया गया है। पष्ठ अध्ययन में धर्म, अर्थ, काम, व्रतषटक, कायषट्क आदि का प्रतिपादन है। इसमें आचार्य का संस्कृतभाषा के व्याकरण पर प्रभत्व दृष्टिगोचर होता है। सप्तम अध्ययन में भाषा सम्बन्धी विवेचना है। अष्टम अध्ययन में इन्द्रियादि प्रणिधियों पर विचार किया है। नौवें अध्ययन में लोकोपचार विनय, अर्थविनय, कामविनय, भयविनय, मोक्ष विनय की व्याख्या है। दशम अध्ययन में भिक्षु के गुणों का उत्कीर्तन किया है। चूलिकाओं में रति, अरति, विहारविधि, गहियावत्य का निषेध, अनिकेतवास प्रभृति विषयों से सम्बन्धित विवेचना है। चूणि में तरंगवती, प्रोधनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति आदि ग्रन्थों का नामनिर्देश भी किया गया है। [ 51 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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