________________ गौरव के साथ लिया जा सकता है। उनके द्वारा लिखित सात आगमों पर चुणियां प्राप्त हैं। उनमें एक चणि दशवकालिक पर भी है। दशवकालिक पर दुसरी चणि अगस्त्यसिंह स्थविर की है। प्रागमप्रभाकर पुण्यविजयजी महाराज ने उसे संपादित कर प्रकाशित किया है। उनके अभिमतानुसार अगस्त्यसिंह स्थविर द्वारा रचित चणि का रचनाकाल विक्रम की तीसरी शताब्दी के आस-पास है। 244 अगस्त्यसिंह कोटिगणीय बज्रस्वामी की शाखा के एक स्थविर थे, उनके गुरु का नाम ऋषिगुप्त था। इस प्रकार दशकालिक पर दो चर्णियां प्राप्त हैं.--एक जिनदासगणी महत्तर की, दूसरी अगस्त्यसिंह स्थविर की। अगस्त्यसिंह ने अपनी वृत्ति को चणि की संज्ञा प्रदान की है-"चुगिसमासवयणेण दसकालिय परिसमत्तं / " अगस्त्यसिंह ने अपनी चणि में सभी महत्त्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या की है। इस व्याख्या के लिए उन्होंने विभाषा 2 45 शब्द का प्रयोग किया है। बौद्ध साहित्य में सूत्र-मूल और विभाषा-व्याख्या के ये दो प्रकार हैं। विभाषा का मुख्य लक्षण है—शब्दों के जो अनेक अर्थ होते हैं, उन सभी अर्थों को बताकर, प्रस्तुत में जो अर्थ उपयुक्त हो उसका निर्देश करना। प्रस्तुत चणि में यह पद्धति अपनाने के कारण इसे 'विभाषा' कहा गया है, जो सर्वथा उचित है। चणिसाहित्य की यह सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि अनेक दृष्टान्तों व कथाओं के माध्यम से मूल विषय को स्पष्ट किया जाता है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चणि में अनेक ग्रन्थों के अवतरण दिए हैं जो उनकी बहुश्रुतता को व्यक्त करते हैं। ___ मूल प्रागमसाहित्य में श्रद्धा की प्रमुखता थी। नियुक्तिसाहित्य में अनुमानविद्या या तर्कविद्या को स्थान मिला। उसका विशदीकरण प्रस्तुत चणि में हुआ है। उनके पश्चात् आचार्य अकलंक आदि ने इस विषय को आगे बढ़ाया है। अगस्त्यसिह के सामने दशवैकालिक की अनेक वृत्तियां थी, सम्भव है, वे वत्तियां या व्याख्याएं मौखिक रही हों, इसलिए उपदेश शब्द का प्रयोग लेखक ने किया है। 'भदियायरि अोवएस' और 'दत्तिलायरि प्रोवएस' की उन्होंने कई वार चर्चा की है। यह सत्य है कि दशवकालिक की वृत्तियां प्राचीनकाल से ही प्रारम्भ हो चुकी थीं। प्राचार्य अपराजित जो यापनीय थे, उन्होंने दशवकालिक की विजयोदया नामक टीका लिखी थी।४६ पर यह टीका स्थविर अगस्त्यसिंह के समक्ष नहीं थी। अगस्त्यसिंह ने अपनी चूणि में अनेक मतभेद या व्याख्यान्तरों का भी उल्लेख किया है / 247 ध्यान का सामान्य लक्षण "एगग्ग चिन्ता-निरोहो झाणं' की व्याख्या में कहा है कि एक आलम्बन की चिन्ता करना, यह छद्मस्थ का ध्यान है। योग का निरोध केवली का ध्यान है, क्योंकि केवली को चिन्ता नहीं होती। ज्ञानाचरण का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि प्राकृतभाषानिबद्ध सूत्र का संस्कृत रूपान्तर नहीं करना चाहिए क्योंकि व्यञ्जन में विसंवाद करने पर अर्थ-विसंवाद होता है। 244. बृहत् कल्पभाष्य, भाग 6, प्रामुख पृ. 4 245. विभाषा शब्द का अर्थ देखें-'शाकटायन-व्याकरण', प्रस्तावना पृ. 69 / प्रकाशक---भारतीय ज्ञानपीठ, काशी। 246. दशवैकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपञ्चिता उदगमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते // -भगवती आराधना टीका, विजयोदया गाथा 1195 247. दशवै. अगस्त्यसिंहचूणि, 2-29, 3-5, 16-9, 25-5, 64-4, 78-29, 81-34, 100-25, प्रादि / [70 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org