________________ दसवें अध्ययन का नाम सभिक्ष है। प्रथम नाम, क्षेत्र प्रादि निक्षेप की दृष्टि से 'स' पर चिन्तन किया है। उसके पश्चात् “भिक्षु' का निक्षेप की दृष्टि से विचार किया है। भिक्षु के तीर्ण, तायी, द्रव्य, व्रती, क्षान्त, दान्त, विरत, मुनि, तापस, प्रज्ञापक, ऋजु, भिक्षु, बुद्ध, यति, विद्वान् प्रजित, अनगार, पाखण्डी, चरक, ब्राह्मण, परिव्राजक, श्रमण, निग्रन्थ, संयत, मुक्त, साधु, रूक्ष, तीरार्थी आदि पर्यायवाची दिये हैं। पूर्व में श्रमण के जो पयर्यावाची शब्द दिये गये हैं उनमें भी इनमें के कुछ शब्द आ गये हैं / 41 चलिका का निक्षेप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से चार प्रकार का है। यहां पर भावचला अभिप्रेत है, जो क्षायोपशमिक है। रति का निक्षेप भी चार प्रकार का है। जो रतिकर्म के उदय के कारण होती है---वह भाव-रति है, वह धर्म के प्रति रतिकारक और अधर्म के प्रति अरतिकारक है। इस प्रकार दशवकालिकनियुक्ति की तीन सौ इकहत्तर गाथाओं में अनेक लौकिक और धार्मिक कथाओं एवं सूक्तियों के द्वारा सूत्रार्थ को स्पष्ट किया गया है। हिंगुशिव, गन्धविका, सुभद्रा, मृगावती, नलदाम और गोविन्दवाचक आदि की कथाओं का संक्षेप में नामोल्लेख हया है। सम्राट् कुणिक ने गणधर गौतम से जिज्ञासा प्रस्तुत की--- भगवन् ! चक्रवर्ती मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? समाधान दिया गया- संयम ग्रहण न करें तो सातवें नरक में / पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत हई-भगवन् ! मैं कहाँ पर उत्पन्न होऊँगा? गौतम ने समाधान दिया-छठे नरक में। प्रश्नोत्तर के रूप में कहीं-कहीं पर ताकिक शैली के भी दर्शन होते हैं। भाष्य नियुक्तियों की व्याख्याशैली बहुत ही संक्षिप्त और गूढ थी। नियुक्तियों का मुख्य लक्ष्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना था। नियुक्तियों के गुरु गम्भीर रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए कुछ विस्तार से प्राकृत भाषा में जो पद्यात्मक व्याख्याएं लिखी गई, वे भाप्य के नाम से विश्रत हैं। भाष्यों में अनेक प्राचीन अनुथ तिया, लौकिक कथाएँ और परम्परागत श्रमणों के आचार-विचार और गतिविधियों का प्रतिपादन किया गया है। दशवकालिक पर जो भाष्य प्राप्त है, उसमें कुल 63 गाथाएं हैं। दशव कालिकाण में भाष्य का उल्लेख नहीं है, प्राचार्य हरिभद्र ने अपनी वत्ति में भाष्य और भाष्यकार का अनेक स्थलों पर उल्लेख किया है२४२, भाष्यकार के नाम का उल्लेख नहीं किया और न अन्य किसी विज्ञ ने ही इस सम्बन्ध में सूचन किया है। 13 जिन गाथानों को प्राचार्य हरिभद्र ने भाष्यगत माना हैं, वे गाथाएं चणि में भी हैं। इससे यह स्पष्ट है कि भाष्यकार चूणिकार से पूर्ववर्ती हैं। इसमें हेतु, विशुद्धि, प्रत्यक्ष, परोक्ष, मूलगुणों व उत्तरगुणों का प्रतिपादन किया गया है। अनेक प्रमाण देकर जीव की संसिद्धि की गई है। दशवकालिकभाष्य दशबैकालिकनियुक्ति की अपेक्षा बहुत ही संक्षिप्त है। चणि आगमों पर नियुक्ति और भाष्य के पश्चात् शुद्ध प्राकृत में और संस्कृत मिश्रित प्राकृत में गद्यात्मक व्याख्याएँ लिखी गई / वे चणि के रूप में विश्रुत हैं। चर्णिकार के रूप में जिनदासगणी महत्तर का नाम अत्यन्त 241. दशवकालिक, गाथा 345-347 242. (क) भाष्यकृता पुनरुपन्यस्त इति / -दशवै. हारिभद्रीय टीका, प. 64 (ख) आह च भाष्यकारः। -~-दशवै. हारिभद्रीय टीका, प, 120 (ग) व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः / दशवै. हा, टी , प. 128 243. तामेव नियुक्तिगाथां लेशतो व्याचिख्यासुराह भाष्यकारः।-एतदपि नित्यत्वादिप्रसाधकमिति नियुक्तिमाथायामनुपन्यस्तमप्युक्तं सूक्ष्मधिया भाष्यकारेणेति गाथार्थः / —दशवै. हारि. टीका, पत्र 132 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org