________________ गहराई से चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि प्राचार्य मलयगिरि का तर्क अधिक वजनदार नहीं है। केवल नमस्कार न करने के कारण ही पिण्डनियुक्ति दशवकालिकनियुक्ति का एक अंश है, यह कथन उपयुक्त नहीं है / ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्तन करने पर स्पष्ट होता है कि नमस्कार करने की परम्परा बहुत प्राचीन नहीं है। छेदसूत्र और मूलसूत्रों का प्रारम्भ भी नमस्कार-पूर्वक नहीं हुआ है। टीकाकारों ने खींचतान कर आदि, मध्य और अन्त मंगल की संयोजना की। मंगल-वाक्यों की परम्परा विक्रम की तीसरी शती के पश्चात् की है। विषय की दष्टि से दोनों में समानता है किन्तु पिण्डनियुक्ति भद्रबाह की रचना है, यह उल्लेख प्राचार्य मलयगिरि के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं पर भी नहीं मिलता। दशवकालिकनियुक्ति में सर्वप्रथम दश शब्द का प्रयोग दस अध्ययन की दृष्टि से हुआ है और काल का प्रयोग इसलिए हुआ है कि इसकी रचना उस समय पूर्ण हुई जब पौरुषो व्यतीत हो चुकी थी, अपराह्न का समय हो चुका था। प्रथम अध्ययन का नाम 'द्र मष्पिका' है। इसमें धर्म की प्रशंसा करते हए उसके लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद बताये हैं। लौकिकधर्म के ग्रामधर्म , देशधर्म, राजधर्म प्रभति अनेक भेद किये हैं। लोकोत्तर धर्म के श्रुतधर्म और चारित्रधर्म ये दो विभाग हैं। श्रुतधर्म स्वाध्याय रूप है और चारित्रधर्म श्रमणधर्म रूप है। अहिंसा, संयम और तप की सुन्दर परिभाषा दी गई है। प्रतिज्ञा, हेतु, विभक्ति, विपक्ष, प्रतिबोध, दृष्टान्त, भाशंका, तत्प्रतिषेध, निगमन इन दस अवयवों से प्रथम अध्ययन का परीक्षण किया गया है। 22 // द्वितीय अध्ययन के प्रारम्म में श्रामण्य-पूर्वक की निक्षेप पद्धति से व्याख्या है। श्रामण्य का निक्षेप चार प्रकार से किया गया है—१. नामश्रमण 2. स्थापनाश्रमण 3. द्रव्यश्रमण और 4. भावभ्रमण / भावश्रमण की संक्षेप में और सारगर्भित व्याख्या की गई है। 270 श्रमण के प्रव्रजित, अनगार, पाषंडी, चरक, तापस, भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, संयत, मुक्त, तीर्ग, त्राता, द्रव्यमुनि, क्षान्तदान्त, विरत, रूक्ष, तीराथी, ये पर्यायवाची हैं। पूर्वक के निक्षेप की दृष्टि से तेरह प्रकार हैं-१. नाम 2. स्थापना 3. द्रव्य 4. क्षेत्र 5. काल 6. दिक् 7. तापक्षेत्र 8. प्रज्ञापक 9. पूर्व 10. वस्तु 11. प्राभत 12. अति प्राभूत 13. भाव। उसके पश्चात् काम पर भी निक्षेप दष्टि से चिन्तन किया है। भाव-काम के इच्छाकाम और मदन-काम ये दो प्रकार हैं। इच्छा-काम प्रशस्त और अप्रशस्त, दो प्रकार का होता है। मदन-काम का अर्थ-वेद का उपयोग, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुसकवेद आदि का विपाक अनुभव / प्रस्तुत अध्ययन में मदन-काम का निरूपण है। 23' इस प्रकार इस अध्ययन में पद की भी निक्षेप दृष्टि से व्याख्या है। 232 तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक अर्थात् लघु अाचारकथा का अधिकार है। क्षुल्लक, प्राचार और कथा इन तीनों का निक्षेप दष्टि से चिन्तन है / क्षुल्लक का नाम, स्थापना, द्रव्य और क्षेत्र, काल, प्रधान, प्रतीत्य और भाव इन पाठ भेदों की दृष्टि से चिन्तन किया गया है। प्राचार का निक्षेपदष्टि से चिन्तन करते हुए नामन, धावन, बासन, शिक्षापन आदि को द्रव्याचार कहा है और दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य को भावाचार कहा है। 229 दशवकालिक गाथा 137-148 230. , गाथा 152-157 231. गाथा 161-163 232. गाथा 166-177 [ 67 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org