________________ जो सहइ हु गामकंटए अक्कोसपहारतज्जणायो य। भयभेरवसहसंपहासे समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खु // ---दशवकालिक 10111 अर्थ-जो कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों, आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और बेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को सहन करता है तथा सुख और दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है वह भिक्षु है। सुत्तनिपात की निम्न गाथानों से तुलना करें भिक्खुनो विजिगुच्छतो, भजतो रित्तमासनं / रुक्खमूलं सुसानं वा, पचतानं गुहासु वा / / उच्चावचेसु सयनेसु कोवन्तो तत्थ भेरवा / येहि भिक्ख्नु न वेधेय्य निग्घोसे सयनासने / —सुत्तपनिपात 5414-5 दशवैकालिक के दसवें अध्ययन की 15 वी गाथा है हत्थमंजए पायसंजए वायसंजए संजइंदिए। अज्झप्प रए सुसमाहियप्पा सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्ख / / -दशवकालिक 10 / 15 अर्थ-जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वामी से संयत है, इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, भली-भांति समाधिस्थ है और जो सुत्र और अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है, वह भिक्षु है। धम्मपद में भिक्षु के लक्षण निम्न गाथा में पाए हैं-- चक्खुना संवरो साधु साधु सोतेन संवरो / घाणेन संबरो साधु साधु जिह्वाय संवरो॥ कायेन संवरो साधु साधु बाचाय संवरो। मनसा संवरो साधु साधु सब्वत्थ संवरो / सब्बत्थ संवृतो भिक्खु सब्बदुक्खा पमुच्चति / --धम्ममद 251-2-3 हत्थसंयतो पादसंयतो वाचाय संयतो संयतुत्तमो। अज्झत्तरतो समाहितो, एको सन्तुसितो तमाहु भिक्खु।। इस प्रकार दशवकालिकसूत्र में पायी हुई गाथाएँ कहीं पर भावों की दृष्टि से तो कहीं विषय की दृष्टि से और कहीं पर भाषा की दृष्टि से वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों के साथ समानता रखती हैं। कितनी ही गाथाएँ प्राचारांग चूलिका के साथ विषय और शब्दों की दृष्टि से अत्यधिक साम्य रखती हैं। उनका कोई एक ही स्रोत होना चाहिए। इसके अतिरिक्त दशवकालिक की अनेक गाथाएं अन्य जैनागमों में आई हुई गाथाओं के साथ मिलती हैं। पर हमने विस्तारभय से उनकी तुलना नहीं दी है। समन्वय की दृष्टि से जब हम गहराई से पावगाहन करते हैं तो ज्ञात होता है—अनन्त सत्य को व्यक्त करने में चिन्तकों का अनेक विषयों में एकमत रहा है। व्याख्यासाहित्य दशवकालिक पर अाज तक जितना भी व्याख्यासाहित्य लिखा गया है, उस साहित्य को छह भागों में विभक्त किया जा सकता है--नियुक्ति, भाष्य, चणि, संस्कृतटीका, लोकभाषा में टब्बा और आधुनिक शैली से [ 65] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org