________________ थंभा व कोहा व मयप्पमाया गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे। सो चेव उ तस्स प्रभूइभावो फलं व कीयस्स बहाय होइ॥ --दशवकालिक 9 / 11 जो मुनि गर्व, क्रोध, माया या प्रमादवश गुरु के समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता वही (विनय की उसके विनाश के लिए होती है / जैसे कीचक (वांस) का फल उसके विनाश के लिए होता है, अर्थात्हवा से शब्द करते हुए बांस को कीचक कहते हैं, वह फल लगने पर सूख जाता है / धम्मपद में यही उपमा इस प्रकार आई है यो सासनं अरहतं अरियानं धम्मजीविनं। पटिक्कोसति दुम्मेधो दिद्धि निस्साय पापिकं // फलानि कटुकस्सेव अत्तया फुल्लति // -धम्मपद 1218 जो दुर्बुद्धि मनुष्य पापमयी दृष्टि का आश्रय लेकर अरहन्तों तथा धर्मनिष्ठ आर्य पुरुषों के शासन की अबहेलना करता है, वह आत्मघात के लिए बांस के फल की तरह प्रफुल्लित होता है। दशवकालिक के दसवें अध्ययन की आठवीं गाथा में भिक्षु के जीवन की परिभाषा इस प्रकार दी है तहेव असणं पाणगं वा विविहं खाइमसाइमं लभित्ता / होही अट्टो सुए परे वा तं न निहे न निहावए जे स भिक्ख // —दशवकालिक 1018 अर्थ-पूर्वोक्त विधि से विविध प्रशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर, यह कल या परसों काम पाएगा, इस विचार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है वह भिक्षु है। सुत्तनिपात में यही बात इस रूप में झंकृत हुई है अन्नानमथो पानानं, खादनीयानमथोऽपि वत्थानं / लद्धा न सन्निधि कथिरा, न च परित्तसेतानि अलभमानो। सुत्तनिपात 52-10 दशवकालिक सूत्र के दसवें अध्ययन की दसवीं गाथा में भिक्षु की जीवनचर्या का महत्त्व बताते हुए कहा है न य वुग्गहियं कहं कहेज्जा न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते। संजमधुवजोगजुत्त उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू / दशवकालिक 10 / 10 अर्थ-जो कलहकारी कथा नहीं करता, जो कोप नहीं करता, जिसकी इन्द्रियां अनुद्धत हैं, जो प्रशान्त है, जो संयम में ध्र वयोगी है, जो उपशान्त है, जो दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता वह भिक्षु है / भिक्षु को शिक्षा देते हुए सुत्तनिपात में प्रायः यही शब्द कहे गए हैं—(सुत्तनिपात, तुवटक सुत्त 52 / 16) न च कत्थिता सिया भिक्खू, न च वाचं पयुतं भासेय्य / पागभियं न सिक्खेय्य, कथं विग्गाहिकं न कथयेय्य / / भिक्षु धर्म रत्न ने चतुर्थ चरण का अर्थ लिखा है-कलह की बात न करे। धर्मानन्द कौसम्बी ने अर्थ किया कि भिक्षु को वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। दशवकालिक के दसवें अध्ययन की ग्यारहवीं गाथा में भिक्ष की परिभाषा इस प्रकार की गई है-- [ 64] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org