________________ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितनेक काल से अपने पाप समत्व बुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्धान्तःकरण हुअा पुरुष पात्मा में अनुभव करता है। दशवकालिक के पांचवें अध्ययन के द्वितीय उद्देशक की चौथी गाथा है कालेण निक्खमे भिक्खू कालेण य पडिक्कमे / अकालं च विवज्जेत्ता, काले कालं समायरे / / भिक्ष समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौट आए। अकाल को वर्जकर जो कार्य जिस समय करने का हो, उसे उसी समय करे / इस गाथा की निम्न से तुलना करें- . काले निक्खमणा साधु, नाकाले साधु निक्खमो। अकाले नहि निक्खम्म, एककपि बहुजनो / / --कौशिक जातक 226 साधु काल से निकले, बिना काल के नहीं निकले। अकाल में तो निकलना ही नहीं चाहिये, चाहे प्रकेला हो या बहुतों के साथ हो। दशवकालिक के छठें अध्ययन की दसवीं गाथा है— सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविन मरिज्जिउ / तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं / / अर्थ-सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता, इसलिए प्राणिवध घोर पाप का कारण है अत: निग्रन्थ उसका परिहार करते हैं। यही स्वर संयुक्तनिकाय में इस रूप में झंकृत हुआ है-- सब्बा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा, नेवझगा पियतरमत्तना क्वचि। एवं पियो पुथु अत्ता परेस, तस्मा न हिसे परमत्तकामो।। -संयुत्तानिकाय श३१८ दशवकालिक के आठवें अध्ययन में क्रोध को शान्त करने का उपाय बताते हुए कहा है'उवसमेण हणे कोहं'–उपशम से क्रोध का हनन करो। --दशवकालिक 8 / 38 तुलना कीजिए 'धम्मपद' क्रोध वर्ग के निम्न पद से'अक्कोधेन जिने कोध'-अक्रोध से क्रोध को जीतो। -धम्मपद, क्रोधवर्ग, 3 दशवकालिक के नौवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक की प्रथम गाथा में बताया है कि जो शिष्य कषाय व प्रमाद के वशीभूत होकर गुरु के सन्निकट शिक्षा ग्रहण नहीं करता, उसका अविनय उसके लिए घातक होता है [ 63 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org