________________ हे केशव ! समाधि में स्थित स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं ? और स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है ? कैसे बैठता है ? कैसे चलता है ? दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन की आठवीं गाथा है जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए / जयं भुजन्तो भासन्तो, पावंकम्मं न बंधई // अर्थ-जो यतना से चलता है, यतना से ठहरता है और यतना से सोता है, यतना से भोजन करता है, मतना से भाषण करता है, वह पाप कर्म का बंधन नहीं करता। इतिवृत्तक में भी यही स्वर प्रतिध्वनित हुअा है यतं चरे, यतं ति? यतं अच्छे यतं सये। यतं सम्मिञ्जये भिक्खू यतमेनं पसारए // -इतिवृत्तक 12 वशर्यकालिक के चतुर्थ अध्ययन की नौवीं गाथा इस प्रकार है---- सव्वभूयप्पभूयस्स सम्म भूयाइ पासपो / पिहियासवरस दंतस्स पावंकम्मं न बंधई // जो सब जीवों को प्रात्मवत मानता है, जो सब जीवों को सम्यक-दृष्टि से देखता है, जो प्रास्रव का निरोध कर चुका है और जो दान्त है, उसे पापकर्म का बन्धन नहीं होता। इस गाथा की तुलना गीता के निम्न श्लोक से की जा सकती है योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः / सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्नपि न लिप्यते // —गीता अध्याय 5, प्रलोक 7 योग से सम्पन्न जितेन्द्रिय और विशुद्ध अन्त:करण वाला एवं सम्पूर्ण प्राणियों को प्रात्मा के समान अनुभव करने वाला निष्काम कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता। दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन की दसवीं गाथा है--- पढमं नाणं तो दया एवं चिट्टइ सब्वसंजए / अन्नाणी कि काही किंवा वा नाहिइ छेय-पावगं / / पहले ज्ञान फिर दया- इस प्रकार सब मुनि स्थित होते हैं। अज्ञाती क्या करेगा? वह कैसे जानेगा कि क्या श्रेय है और क्या पाप है ? इसी प्रकार के भाव गीता के चतुर्थ अध्ययन के अड़तीसवें श्लोक में आए हैं न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते / तत्समयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति / / गीता 4138 [62] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org