________________ 3. उपविष्ट-उत्थित-जो साधक रुग्ण है, तपस्वी है या वृद्ध है, वह शारीरिक प्रसुविधा के कारण बड़ा नहीं हो पाता, वह बैठ कर ही धर्मध्यान में लीन होता है। वह शरीर से बैठा है किन्तु आत्मा से खड़ा है। 4. उपविष्ट-निविष्ट–जो प्रालसी साधक कायोत्सर्ग करने के लिए खड़ा न होकर बैठा रहता है और कायोत्सर्ग में उसके अन्तर्मानस में प्रार्त और रौद्र ध्यान चलता रहता है, वह तन से भी बैठा हुआ और भावना से भी। यह कायोत्सर्ग न होकर कायोत्सर्ग का दिखावा है / चलिका के अन्त में साधक को यह उपदेश दिया गया है कि वह प्रात्मरक्षा का सतत ध्यान रखे / प्रात्मा की रक्षा के लिए देह का रक्षण आवश्यक है। वह देहरक्षण संयम है। प्रात्मा के सद्गुणों का हनन कर जो देहरक्षण किया जाता है वह साधक को इष्ट नहीं होता, अतः सतत प्रात्मरक्षा की प्रेरणा दी गई है। दशवकालिक में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक यही शिक्षा विविध प्रकार से व्यक्त की गई है। बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होना ही आत्मरक्षा है। तुलनात्मक अध्ययन भारतीय संस्कृति में जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों धाराओं का अद्भत सम्मिश्रण है। ये तीनों धाराएं भारत की पुण्य-धरा पर पनपी हैं। इन तीनों धाराओं में परस्पर अनेक बातों में समानता रही है तो अनेक बातों में भिन्नता भी रही है। तीनों धाराओं के विशिष्ट साधकों की अनेक अनुभुतियां समान थीं तो अनेक अनुभूतियां परस्पर विरुद्ध भी थीं। कितनी ही अनुभूतियों का परस्पर विनिमय भी हुआ है। एक ही धरती से जन्म लेने के कारण तथा परस्पर साथ रहने के कारण एक के चिन्तन का दूसरे पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, किन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि कौन सा समुदाय किसका कितना ऋणी है ? सत्य की जो सहज अनुभूति है उसने जो अभिव्यक्ति का रूप ग्रहण किया, वह प्रायः कभी शब्दों में और कभी अर्थ में एक सदश रहा है। उसी को हम यहाँ तलनात्मक अध्ययन की अभिधा प्रदान कर यह अभिप्राय कदापि नहीं कि एक दूसरे ने विचार और शब्दों को एक दूसरे से चुराया है। 'सौ सयाना एक मता' के अनुसार सो समझदारों का एक ही मत होता है-सत्य को व्यक्त करने में समान भाव और भाषा का होना स्वाभाविक है। दशवकालिक के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा है धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा वितं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो॥ धर्म उस्कृष्ट मंगल है, अहिंसा, संयम और तप धर्म के लक्षण हैं, जिसका मन सदा धर्म में रमा रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं। इस गाथा की तुलना करें-धम्मपद (धम्मट्ठवग्गो 1916) के इस श्लोक से यम्हि सच्चं च धम्मो च अहिंसा संयमो दमो / स वे वन्तमलो धीरो सो थेरो ति पबच्चति / / जिसमें सत्य, धर्म, अहिंसा, संयम और दम है, वह मलरहित धीर भिक्षु स्थविर कहलाता है / [ 58 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org