________________ इन्द्रिय और मन के विषयों के प्रवाह में नहीं बहता / श्रमण मद्य और मांस का प्रभोजी होता है। मांस बौद्ध भिक्षु ग्रहण करते थे पर जैन श्रमणों के लिए उसका पूर्ण रूप से निषेध किया गया है। मांस और मदिरा का उपयोग करने वाले को नरकगामी बताया है। साथ ही श्रमणों के लिए दूध-दही आदि विकृतियां प्रतिदिन खाने का निषेध किया गया है। कायोत्सर्ग : एक चिन्तन श्रमण के लिए पुन:-पुनः कायोत्सर्ग करने का विधान है। कायोत्सर्ग में शरीर के प्रति ममत्व का त्याग किया जाता है। साधक एकान्त-शान्त स्थान में शरीर से निस्पृह होकर खम्भे की तरह सीधा खड़ा हो जाता है, शरीर को न अकड़ कर रखता है और न झुका कर ही। दोनों बांहों को घुटनों की ओर लम्बा करके प्रशस्त ध्यान में निमग्न हो जाता है। चाहे जो उपसर्ग और परीषह पायें, उनको वह शान्त भाव से सहन करता है। साधक उस समय न संसार के बाह्य पदार्थों में रहता है, न शरीर में रहता है, वह सब ओर से सिमट कर आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुख होने की एक पवित्र साधना है। वह उस समय राग-द्वेष से ऊपर उठ कर निःसंग और अनासक्त होकर शरीर की मोह-माया का परित्याग करता है। कायोत्सर्ग का उद्देश्य है शरीर के ममत्व को कम करना / कायोत्सर्ग में साधक यह चिन्तन करता है यह शरीर अन्य है तथा मैं अन्य हूं; मैं अजर-अमर चैतन्य रूप हूं; मैं अविनाशी हूं; यह शरीर क्षणभंगुर है; इस मिट्टी के पिण्ड में प्रासक्त बनकर मैं कर्तव्य से पराड़ मुख क्यों बन ? शरीर मेरा वाहन है; मैं इस वाहन पर सवार होकर जीवनयात्रा का लम्बा पथ तय करू / यदि यह शरीर मुझ पर सवार हो जाएगा तो कितनी अभद्र बात होगी ! इस प्रकार कायोत्सर्ग में शरीर के ममत्वत्याग का अभ्यास किया जाता है। अावश्यकनियुक्ति में प्राचार्य भद्रबाहु ने कहा है चाहे कोई भक्ति-भाव से चन्दन लगाए, चाहे कोई द्वेषवश बसूले से छोले, चाहे जीवन रहे, चाहे इसी क्षण मृत्यु आ जाए, परन्तु जो साधक देह में आसक्ति नहीं रखता है, सभी स्थितियों में समचेतना रखता है, वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग सिद्ध होता है / 222 / कायोत्सर्ग के द्रव्य और भाव ये दो प्रकार हैं। द्रव्य कायोत्सर्ग का अर्थ है-शरीर की चेष्टाओं का निरोध करके एक स्थान पर निश्चल और निस्पंद जिन-मुद्रा में खड़े रहना और भाव कायोत्सर्ग हैं---आर्त और रौद्र दुानों का परित्याग कर धर्म और शुक्ल ध्यान में रमण करना; आत्मा के विशुद्ध स्वरूप की अ करना / 223 इसी भाव कायोत्सर्ग पर बल देते हुए शास्त्रकार ने कहा-कायोत्सर्ग सभी दुःखों का क्षय करने वाला है / 2 2 4 भाव के साथ द्रव्य का कायोत्सर्ग भी आवश्यक है। द्रव्य और भाव कायोत्सर्ग के स्वरूप को समझाने के लिए कायोत्सर्ग के प्रकारान्तर से चार रूप बताए हैं 1. उत्थित-उत्थित-जब कायोत्सर्ग के लिए साधक खड़ा होता है, तब द्रव्य के साथ भाव से भी खड़ा होता है / इस कायोत्सर्ग में प्रसुप्त प्रात्मा जागृत होकर कर्मों को नष्ट करने के लिए खड़ा हो जाता है / यह उत्कृष्ट कायोत्सर्ग है। 2. उत्थित-निविष्ट-जो साधक अयोग्य है, वह शरीर से तो कायोत्सर्ग के लिए खड़ा हो जाता है पर भावों में विशुद्धि न होने से उसकी प्रात्मा बैठी रहती है। 222. बासी---चंदणकप्पो, जो मरणे जीविए य समसण्णो। देहे य अपडिबद्धो, काउस्सग्गो हवइ तस्स / / -आवश्यकनियुक्ति गाथा 1548 223. सो पुण काउस्सग्गो दबतो भावतो य भवति, दवतो कायचेट्टानिरोहो, भावतो काउस्सम्गो झाणं / -आवश्यकचूणि 224. काउस्सग्गं तो कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं / -उत्तराध्ययन 26.49 [ 57 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only 'www.jainelibrary.org