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________________ और शरीर की क्रियाओं का नियमन करें। तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में तीन शुचि भावों का वर्णन किया है शरीर की शुचिता, वाणी की शुचिता और मन की शुचिता। उन्होंने कहा--भिक्षुनो! जो व्यक्ति प्राणीहिंसा से विरत रहता है; तस्कर कृत्य से विरत रहता है; कामभोग सम्बन्धी मिथ्याचार से विरत रहता है, यह शरीर की शुचिता है / भिक्षो ! जो व्यक्ति असत्य भाषण से विरत रहता है; चुगली करने से विरत रहता है। व्यर्थ वार्तालाप से विरत रहता है; वह वाणी की शुचिता है। भिक्षुओ! जो व्यक्ति निर्लोभ होता है; अक्रोधी होता है; सम्यग्दृष्टि होता है; वह मन की शुचिता है / 216 इस तरह तथागत बुद्ध ने श्रमण साधकों के लिए मन, वचन और शरीर की अप्रशस्त प्रवृत्तियों को रोकने का सन्देश दिया है / 220 इसी प्रकार गुप्ति के ही अर्थ में वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में त्रिदण्डी शब्द व्यवहत हआ है। दक्षस्मृति में दत्त ने कहा- केवल बांस की दण्डी धारण करने से कोई संन्यासी या त्रिदण्डी परिव्राजक नहीं हो जाता। त्रिदंडी परिव्राजक वही है जो अपने पास आध्यात्मिक दण्ड रखता हो / 22 / आध्यात्मिक दण्ड से यहाँ तात्पर्य मन, वचन और शरीर की क्रियाओं का नियंत्रण है। चाहे श्रमण हो, चाहे संन्यासी हो, उनके लिए यह आवश्यक है कि वे मन-वचन-काया की अप्रशस्त प्रवत्तियों पर नियंत्रण करें। बौद्ध और वैदिक परम्परा की अपेक्षा जैन परम्परा ने इस पर अधिक बल दिया है, जैन श्रमणों के लिए महाव्रत का जहाँ मूलगुण के रूप में विधान है वहाँ समिति और गुप्ति का उत्तरगुण के रूप में विधान किया गया है, जिनका पालन जैन श्रमण के लिए अनिवार्य माना गया है। इस प्रकार मोह-माया से मुक्त होकर श्रमण को अधिक से अधिक साधना में सुस्थिर होने की प्रबन प्रेरणा इस चूलिका द्वारा दी गई है। 'चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं'–शरीर का परित्याग कर दे किन्तु धर्मशासन को न छोड़े-यह है इस चूलिका का संक्षेप में सार / द्वितीय चलिका का नाम 'विविक्तचर्या' है। इसमें श्रमण की चर्या, गणों और नियमों का प्रतिपादन किया गया है / इसमें अन्धानुसरण का विरोध किया गया है। आधुनिक युग में प्रत्येक प्रश्न बहुमत के आधार पर निर्णीत होते हैं, पर बहुमत का निर्णय सही ही हो, यह नहीं कहा जा सकता। बहुमत प्रायः मूखों का होता है, संसार में सम्यग्दष्टि की अपेक्षा मिथ्यास्त्रियों की संख्या अधिक है; ज्ञानियों की अपेक्षा अज्ञानी अधिक हैं; त्यागियों की अपेक्षा भोगियों का प्राधान्य है; इसलिए साधना के क्षेत्र में बहुमत और अल्पमत का प्रश्न महत्त्व का नहीं है। वहाँ महत्त्व है सत्य की अन्वेषणा और उपलब्धि का। उस सत्य की उपलब्धि के साधन हैं--चर्या, गुण और नियम / श्रमण प्राचार में पराक्रम करे, वह गृहवास का परित्याग करे। सदा एक स्थान पर न रहे और न ऐसे स्थान पर रहे जहाँ रहने से उसकी साधना में बाधा उपस्थित होती हो। वह एकान्त स्थान जहाँ स्त्री-पुरुष- नसक-पशु आदि न हों, वहाँ पर रह कर साधना करे। चर्या का अर्थ मूल व उत्तर गुण रूप चारित्र है और गुण का अर्थ है-चारित्र की रक्षा के लिए भव्य भावनाएँ / नियम का अर्थ है-प्रतिमा आदि अभिग्रह; भिक्ष की बारह प्रतिमाएं नियम के अन्तर्गत ही हैं; स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि भी नियम हैं। जो इनका अच्छी तरह से पालन करता है वह प्रतिबुद्ध-जीवी कहलाता है। वह अनुस्रोतगामी नहीं किन्तु प्रतिस्रोतगामी होता है। अनुस्रोत में मुर्दे बहा करते हैं तो प्रतिस्रोत में जीवित व्यक्ति तैरा करते हैं। साधक 219. अंगुत्तरनिकाय 3 / 118 220. अंगुत्तरनिकाय 31120 221. दक्षस्मृति 7 / 27-31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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