________________ के ग्रन्थों में गहस्थाश्रम को महत्त्व दिया गया है। आपस्तंभ धर्म सूत्र में गहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ पाश्रम कहा है। मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से लिखा है कि अग्निहोत्र आदि अनुष्ठान करने वाला गहस्थ ही सर्वश्रेष्ठ है। वही तीन पाश्रमों का पालन करता है। महाभारत में भी गही के आश्रम को ज्येष्ठ कहा है। 211 किन्तु श्रमणसंस्कृति में श्रमण का महत्व है। वहाँ पर आश्रम-व्यवस्था के सम्बन्ध में कोई चिन्तन नहीं है। यदि कोई साधक गहस्थाश्रम में रहता भी है तो उसके अन्तर्मानस में यह विचार सदा रहते हैं कि कब मैं श्रमण बन'; वह दिन कब पायेगा, जब मैं श्रमण धर्म को स्वीकार कर अपने जीवन को पावन बनाऊंगा ! उत्तराध्ययनसूत्र में छदमवेशधारी इन्द्र और नमि राजर्षि का मधुर संवाद है। इन्द्र ने राजषि से कहा---आप यज्ञ करें, श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन करायें, उदार मन से दान दें और उसके पश्चात् श्रमण बनें। प्रत्युत्तर में राजर्षि ने कहा-जो मानव प्रतिमास दस लाख गायें दान में देता है, उसके लिए भी संयम श्रेष्ठ है अर्थात् दस लाख गायों के दान से भी श्रमणधर्म का पालन करना अधिक श्रेष्ठ है। उसी श्रमण जीवन की महत्ता का यहां चित्रण है। इसलिए गहवास बन्धन स्वरूप है और संयम मोक्ष का पर्याय बताया गया है / 212 जो साधक दृढ़प्रतिज्ञ होगा वह देह का परित्याग कर देगा किन्तु धर्म का परित्याग नहीं करेगा / महावायु का तीव्र प्रभाव भी क्या सुमेरु पर्वत को विचलित कर सकता है ? नहीं! वैसे ही साधक भी विचलित नहीं होता / वह तीन गुप्तियों से गुप्त होकर जिनवाणी का प्राथय ग्रहण करता है। गुप्ति : एक विवेचन जैन परम्परा में तीन गुप्तियों का विधान है। गुप्ति शब्द गोपन अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसका तात्पर्य है खींच लेना, दूर कर लेना, मन-वचन-काया को अशुभ प्रवृत्तियों से हटा लेना। गुप्ति शब्द का दूसरा अर्थ ढकने वाला या रक्षाकवच है / अर्थात् आत्मा की अशुभ प्रवृत्तियों से रक्षा करना गुप्ति है। गुप्तियां तीन हैं-- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति / मन को अप्रशस्त, कुत्सित और अशुभ विचारों से दूर रखना, संरम्भ समारम्भ और प्रारम्भ की हिंसक प्रवृत्तियों में जाते हुए मन को रोकना मनोगुप्ति है / 21 3 असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग नहीं करना; स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति और असत्य वचन का परिहार करना वचनगुप्ति है / 214 उत्तराध्ययन के अनुसार श्रमण अशुभ प्रवृत्तियों में जाते हुए वचन का निरोध करे / 215 श्रमण उठने, बैठने, लेटने, नाली प्रादि लांघने तथा पांचों इन्द्रियों की प्रवत्ति में नियमन करे ।२०६दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बन्धन, छेदन, मारण, प्राचन, प्रसारण प्रभूति शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति कायगुप्ति है। 217 जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात ग्रन्थ में भी गुप्ति शब्द का प्रयोग हुअा है / 2 6 तथागत बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुओं को आदेश दिया कि वे मन, वचन 210. मनुस्मृति 689 211. ज्येष्ठाश्रमो गृही। -महाभारत, शान्तिपर्व, 2315 212. बंधे गिहवासे / मोक्खे परियाए / –दशवकालिक चूलिका प्रथम, 12 213. उत्तराध्ययन 24.2 214. नियमसार 67 215. उत्तराध्ययन 24123 216. उत्तराध्ययन 24 / 24, 25 217. नियमसार 68 218. सुत्तनिपात 4 // 3 [ 55] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org