________________ दशवकालिक के प्रथम अध्ययन की दूसरी गाथा की तुलना धम्मपद (पुप्फवग्गो 416) से की जा सकती है-- जहा दुमस्स पूप्फेस भमरो आवियइ रसं / न य पुप्फ किलामेइ सोय पीणेइ अप्पयं / / -दशवकालिक 12 जिस प्रकार भ्रमर द्रम-पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, किसी भी पूष्प को पीड़ा नहीं उत्पन्न करता और अपने को भी तृप्त कर लेता है / तुलना करें यथापि भमरो पुप्फ वण्णगन्धं आहेठयं / पलेति रसमादाय एवं गामे भुनी चरे॥ -धम्मपद (युप्फवग्गो 416) जैसे फूल या फूल के वर्ण या गन्ध को बिना हानि पहुंचाए भ्रमर रस को लेकर चल देता है, उसी प्रकार मुनि गांव में विचरण करे। मधुकर-वृत्ति की अभिव्यक्ति महाभारत में भी इस प्रकार हुई है-- यथा मधु समादत्ते रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः / तदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया // महाभारत 34 / 17 जैसे भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ ही उनका मधु ग्रहण करता है, उसी प्रकार राजा भी प्रजाजनों को कष्ट दिए बिना ही कर के रूप में उनसे धन ग्रहण करे। दशवकालिक के द्वितीय अध्ययन की प्रथम गाथा है कहं नु कुज्जा सामण्णं जो कामे न निवारए / पए पए विसीयंतो संकप्पस्स वसं गयो / / वह कैसे श्रामण्य का पालन करेगा जो काम (विषय-राग) का निवारण नहीं करता, जो संकल्प के वशीभूत होकर पग-पग पर विषादग्रस्त होता है। इसी प्रकार के भाव बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ संयुक्तनिकाय के निम्न श्लोक में परिलक्षित होते हैं दुक्करं दुत्तितिक्खञ्च अन्यत्तेन हि सामा। बहूहि तत्थ सम्बाधा यत्थ बालो विसीदतीति / कतिहं चरेय्य सामञ्ज, चित्तं चे न निवारए। पदे पदे विसीदेय्य संकप्पानं वसानगो।। संयुक्तनिकाय 117 कितने दिनों तक वह श्रमण भाव को पालन कर सकेगा, यदि उसका चित्त वश में नहीं हो तो, जो इच्छाओं के आधीन रहता है वह कदम-कदम पर फिसल जाता है। [ 59 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org