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________________ द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या] [417 स्यकाल प्रपंची या भ्रष्टाचारी साधु के साथ नहीं रहना या विचरना चाहिए, क्योंकि शिथिलाचारी के साथ रहने से चारित्रधर्म की हानि, समाज में अप्रतीति, अप्रतिष्ठा, अश्रद्धा उत्पन्न होती है। अयोग्य साधु के साथ रहने से हानि ही हानि है। परन्तु एकाकी विचरण करने वाले मुनि के लिए दो बातें शास्त्रकारों ने अंकित की हैं-(१) कठिन से कठिन संकट-प्रसंग में भी पापकर्मों से दूर रहे, उनका स्पर्श न होने दे तथा (2) काम-भोगों के प्रति जरा भी आसक्ति न रखे। इस गाथा में प्रापवादिक स्थिति में अकेले विचरण की चर्चा है। जो साधु रसलोलुप, सुविधावादी, निरंकुश या अपनी उग्रप्रकृतिवश स्वच्छन्दाचारी होकर प्राचार्य के अनुशासन की अवहेलना करके अकेले विचरण करते हैं, उनके लिए शास्त्रकार अकेले विचरण की आज्ञा नहीं दे रहे हैं। एकाकी विचरण की कठिन शर्तों के साथ उसकी अवधि भी अल्प ही है, वह भी तब तक जब तक वैसा निपुण सहायक-साथी न मिले / 2 (10) चातुर्मास एवं मासकल्प में निवास की चर्या–प्रस्तुत 570 वीं गाथा में चातुर्मास एवं मासकल्प की मयादा बताई है। मुनि के लिए वर्ष भर के काल को दो भागों में बाँटा गया है-चातुर्मास एवं ऋतुबद्धकाल / इसीलिए यहाँ उसे 'संवच्छर' (संवत्सर) कहा गया है। मुनि चातुर्मास्यकाल ष 8 मास के ऋतबद्धकाल में उत्कृष्ट 1-1 मास तक एक स्थान पर रहता है। यहाँ बतलाया गया है कि जहाँ उत्कृष्ट काल तक वास किया हो, वहाँ दूसरी या तीसरी बार वास नहीं करना चाहिए / तीसरी बार का यहाँ स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु 'चकार' के द्वारा यह अर्थ अध्याहृत होता है / तात्पर्य यह है कि जहाँ मुनि चातुर्मास करे, वहाँ दो चातुर्मास अन्यत्र किये विना चातुर्मास न करे और जहाँ मुनि एक मास रहे, वहाँ दो मास अन्यत्र बिताए बिना न रहे।'(११) सुत्तस्य मम्गेण चुरेज्ज० इत्यादि / पंक्ति का भावार्थ-यहाँ तक सूत्रोक्त उत्सर्ग और अपवाद को दृष्टि में रख कर साधुवर्ग की विशिष्ट विविक्तचर्या का उल्लेख किया गया है। फिर भी अनेक चर्याओं का यहाँ उल्लेख नहीं है। उनके विषय में अतिदेश करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-~-शेष चर्यानों के विषय में सूत्र में उत्सर्ग और अपवादरूप अर्थ (चर्या) की जिस प्रकार से प्राज्ञा हो, उसी प्रकार से सूत्रोक्तमार्ग से चलना चाहिए, स्वच्छन्द वृत्ति के अनुसार नहीं, क्योंकि सूत्रोक्त मार्ग से चलने वाला साधु आज्ञा का आराधक होता है। सूत्र के भावों को सम्यक् प्रकार से सोच-समझ कर जो साधु-साध्वी चलते हैं,४ वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार मुख्य विविक्तचर्याओं के सम्बन्ध में यहां तक चर्चा की गई है। एकान्त आत्मविचारणा के रूप में विविक्तचर्या 571. जो पुम्वरत्तावरत्तकाले, संपेक्खई+ अप्पगमप्पएणं / कि मेकर्ड, किं च मे किच्चसेसं ? कि सक्कणिज्जं न समायरामि ? // 12 // - - ---- . -. - 12. (क) दशवे. (प्राचार्यश्री पात्मारामजी म.)पृ. 1053-54 (ख) दसवे. (मु. नथ.), पृ. 530 13. दसवे. (मुनि नथमल जी), पृ. 531 14. दशवं. (आ. अात्माराजी म.), पृ.१०५५ + पाठान्तर-संपेहए, संपेहइ, संपिक्खइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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