________________ 415] [ दशवकालिकसूत्र 572. कि मे परो पासइ, किं* व अप्पा? कि वाहं खलियं न विवज्जयामि ? इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, प्रणागयं नो पडिबंध कुज्जा // 13 / / 573. जत्थेब पासे कई दुष्पउत्तं, काएण वाया अदु माणसेणं / तत्थेव धीरो पडिसाहरेज्जा,+ आइन्नो खिप्पमिव खलीणं // 14 // 574. जस्सेरिसा जोग जिइंदियस्स, धिईमनो सप्पुरिसस्स निच्छ / तमाहु लोए पडिबुद्धजीवी, सो जीव संजय-जीविएणं // 15 // 575. अप्पा खलु सययं रक्खियव्वो, सव्विदिएहि सुसमाहिएहि / अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सम्वदुहाण मुच्चइ // 16 / / -त्ति बेमि / / विवित्तचरिया : बिइया चूलिया समत्ता [ बारसमं विवित्तरिया णामऽज्झयणं समतं ] // दसवेयालियं समत्तं / / [571-572 / जो साधु रात्रि के प्रथम प्रहर और पिछले (अन्तिम) प्रहर में अपनी प्रात्मा का अपनी आत्मा द्वारा सम्प्रेक्षण (सम्यक् अन्तनिरीक्षण) करता है कि मैंने क्या (कौन-सा करने योग्य कृत्य) किया है ? मेरे लिए क्या (कौन-सा) कृत्य शेष रहा है ? वह कौन-सा कार्य है, जो मेरे द्वारा शक्य है, किन्तु मैं (प्रमादवश) नहीं कर रहा हूँ ? // 12 // क्या मेरी स्खलना (भूल या प्रमाद) को दूसरा कोई देखता है ? अथवा क्या अपनी भूल को मैं स्वयं देखता हूँ ? अथवा कौन-सी स्खलना मैं नहीं त्याग रहा हूँ ? इस प्रकार प्रात्मा का सम्यक् अनुप्रेक्षण (अन्तनिरीक्षण) करता हुग्रा मुनि अनागत (भविष्यकाल) में (किसी प्रकार का दोषात्मक) प्रतिबन्ध न करे / / 13 / / / पाठान्तर- * च। + पडिसाहरिज्जा। प्राइण्णो। Cजीआइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org