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________________ 416] [दशवकालिकसूत्र उत्तरगुणरूप चारित्र की चर्या--(१) अमज्जमंसासिणो-अमद्य-मांसाशी--साधु मद्य और मांस का सेवन न करे, क्योंकि दोनों पदार्थ अनेक जीवों की उत्पत्ति और विनाश के कारण हैं तथा इनसे बुद्धि भ्रष्ट होती है / (2) अमच्छरी-अमत्सरी-किसी से मत्सर--डाह या ईर्ष्या न करने वाला हो। (3) अभिक्खणं निश्विगई गया बार-बार विकृतिकारक घी, दूध, मिष्टान्न आदि पौष्टिक पदार्थों के सेवन से मादकता, पालस्य, मतिमन्दता आदि की वृद्धि होती है, रसलोलुपता जागती है। (4) अभिक्खणं काउसम्गकारो---प्रतिदिन पुन:-पुनः कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग से शरीर के प्रति ममत्व घटता है, देहाध्यास घटाने का अभ्यास होता है, शरीर से सम्बन्धित चिन्ताएँ नहीं पात्मिक शक्ति, मनोबल एवं प्रात्मशुद्धि होती है। (5) समायजोगे पयओहवेज्जा--स्वाध्याय और उसके योगोद्वहन में प्रयत्नशील हो / स्वाध्याय से ज्ञानवृद्धि, आत्मविकास एवं प्रात्मशुद्धि के लिए चिन्तन-मनन-पालोचन आदि की जागति होती है। चित्त में स्थिरता, समता और वीतरागता का भाव जागता है। स्वाध्याय के साथ योग अर्थात् योगोद्वहन-प्राचाम्ल आदि का एक विशेष तपोऽनुष्ठान आवश्यक है। इससे बौद्धिक निर्मलता, प्रात्मशुद्धि और चित्त की स्थिरता बढ़ती है, इन्द्रियाँ दुर्विषयों की ओर प्रायः नहीं दौड़तीं। (6) ण पडिन्नविज्जा इत्यादि गाथा का निष्कर्ष यह है कि साधु किसी भी खाद्यवस्तु, उपकरण, शय्या, प्रासन, स्थान, देश, नगर, ग्राम आदि में ममता-मूर्छा, आसक्ति या लालसा न रखे, अन्यथा ममत्व भाव से परिग्रहमहावत भंग हो जाएगा 1. (7) गिहिणो वेयावडियं प्रादि पंक्ति का रहस्य-मुनि को किसी भी गृहस्थ का वैयावृत्य (प्रीतिजनक उपकार-उसका व्यापार आदि कार्य) करना, या उसकी सेवाभक्ति करना तथा अभिवादन, वन्दन, पूजन करना नहीं चाहिए / इससे गृहस्थ के साथ अत्यधिक संसर्ग बढ़ता है। असंकिलिटठेहि समंधसिज्जा: आशय-जो मुनि सब प्रकार से संक्लेशों से रहित हैं. उत्कृष्टचारित्री हैं, उन्हीं के साथ या संसर्ग में रहना चाहिए, जिससे ज्ञानादि गुणों की वृद्धि हो, हानि न हो।"(E) निपुण साथी न मिलने पर एकाको विहार का निर्देश-प्रस्तुत गाथा (569) का तात्पर्य यह है कि कदाचित् काल-दोषवश अथवा गुरु या साथी साधु के वियोग के कारण संयमानुष्ठान में कशल, परलोकसाधन में सहायक, अपने से ज्ञानादि गुणों में अधिक या समान कोई मुनि साथी के रूप में न मिले तो मुनि को अकेले विचरण करना उचित है, किन्तु भूल कर भी शिथिलाचारी, संक्लेशी, भाणभेदाई दोसा ।"अोमाण-विवज्जणं नाम अवम-ऊणं अवमाणं, प्रोमो वा मोगा जत्य संभवडतं प्रोमाणं। -जि. चू., पृ. 371 (ख) अवमानं स्वपक्ष-परपक्षप्राभृत्य लोकाबहुमानादि""अवमाने अलाभाधाधाकर्मादिदोषात् / इदं चोत्सन्न दृष्टाहृतं यत्रोपयोग: शुद्धयति त्रिगृहान्तरादारात इत्यर्थः / -हा. वृ., पत्र 28 (ग) दशवं. (संतबालजी), पृ. 159 (घ) तज्जायसंसमिति जातसद्दो प्रकारवाची, तज्जातं तथाप्रकारं। -अ.च. (ङ) तज्जातेन देयद्रव्याऽविरोधिना यत्संसृष्टं हस्तादि / --स्था. 51 वत्ति / (च) दसवेयालियं (मु. नथ.), पृ. 528 9. दशवकालिक (प्राचार्यश्री प्रास्माराजी म.), पृ. 1048 10. वही, पृ. 1050 11. वही, पृ. 1051 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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