________________ द्वितीय चलिका : विविक्तवर्या] [415 एकान्त, उद्यान, उपाश्रय, स्थानक या शून्यगृह आदि में रहना चाहिए। ब्रह्मचर्य सुगुप्ति की दृष्टि से भी 'विविक्तशय्या' आवश्यक है। ___ अनिकेतवास का अर्थ-गृहत्याग भी है। अनियतवास-बिना किसी रोगादि कारण के सदा एक ही नियतस्थान में नहीं रहना / एक ही स्थान पर अधिक रहने से ममत्वभाव का उदय होता है / (2) समुयाणचरिया : प्राशय-भिक्षाचर्या उच्च-नीच-मध्यम सभी कुलों से-अने घरों से सामुदायिक रूप से करनी चाहिए, क्योंकि एक ही घर से आहार-पानी लेने से प्रौदेशिक प्रादि दोष लगने की संभावना है। (3) अन्नाय-उंछं-पूर्वपरिचित पितृपक्ष और पश्चात्परिचित श्वसुरपक्ष आदि से भिक्षा न लेकर अपरिचित कुलों से प्राप्त भिक्षा / (4) पाइरिक्कया-प्रतिरिक्तता-- एकान्तस्थान में निवास, प्राशय यह है---जहाँ स्त्री-पुरुष, पशु या नपुसक रहते हों वहाँ या भीड़भाड़ वाले स्थान में न रहना / (5) प्रप्पोवही- अल्प उपधि रखना-वस्त्रादि धर्मोपकरण कम रखना / अल्प-उपधि से प्रतिलेखन करने में समय कम लगता है, ममत्वभाव भी घटता है और परिग्रहवृद्धि नहीं होती / (6) कलह-विवज्जणा : कलहवर्जन-कलह से शान्ति भंग होती है, रागद्वेषवृद्धि, कर्मबन्ध तथा लोगों में धर्म के प्रति घृणाभाव होता है। विहारचर्या : भावार्थ-विहारचर्या का अर्थ यहाँ टीका और जिनदासचूणि में मासकल्पादि पादविहार की चर्या किया है, किन्तु अगस्त्यचूणि के अनुसार विहारचयों यहाँ समस्तचया-साधु की क्रिया मात्र का संग्राहक है / (7) प्राइण्ण-ओमाणविवज्जणा-प्राकीर्ण-अवमान-विवर्जना : पाकीर्ण और अवमान, ये दो प्रकार के भोज हैं। प्राकीर्ण भोज वह है, जिसमें बहुत भीड़ हो / पाकीर्ण भोज में अत्यधिक जनसमूह होने से साधु को धक्कामुक्की होने के कारण हाथ-पैर आदि में चोट लगने की संभावना है / अनेक स्त्री-पुरुषों के यातायात से मार्ग खचाखच भरा होने से स्त्री आदि का संघट्टा हो सकता है। अवमानभोज वह है, जिसमें गणना से अधिक खाने वालों की उपस्थिति होने से भोजन कम पड़ जाए। अवमानभोज से भोजन लेने पर भोजकार को अतिथियों के लिए दुबारा भोजन बनाना पड़ता है, अथवा भोजकार साध को भोजन देने से इन्कार कर देता है, अथवा स्वपरपक्ष की ओर से अपमान होने की सम्भावना है / अनेक दोषों की संभावना के कारण प्राकीर्ण और अवमान भोज में जाना साधु के लिए वजित है। (8) ओसन्न-दिट्ठाहड-भत्तपाणे-उत्सन्न-दृष्टाहृत-भक्तपान-उत्सन्न का अर्थ है-प्रायः / दिद्वाहड का अर्थ है-दृष्टस्थान से लाए हुए आहार-पानी को ग्रहण करना / इसकी मर्यादा यह है कि तीन घरों के अन्तर से लाया हुआ पाहार-पानी हो, वह ग्रहण करे, उससे आगे का नहीं / जहाँ से पाहार-पानी दाता द्वारा लाया जाता है, उसे देखने के दो प्रयोजन हैं-(१) गृहस्थ अपनी आवश्यकता की वस्तु तो नहीं दे रहा है ? (2) वह आहार किसी दोष से युक्त तो नहीं है? (9) संसटकप्पेण-इत्यादि पंक्ति का भावार्थ-अचित्त वस्तु से लिप्त हाथ और भाजन (बर्तन) से आहार लेना संसृष्टकल्प कहलाता है। क्योंकि यदि दाता सचित्त जल से हाथ और बर्तन को धोकर भिक्षा देता है, तो पुराकर्म दोष और यदि वह देने के तुरंत बाद बर्तन या हाथ धोता है तो पश्चात्कर्मदोष लगता है और सचित्त वस्तु से संसृष्ट हाथ और बर्तन से देता है तो जीव की विराधना का दोष लगता है। इसलिए आगे कहा गया है हाथ और पात्र तज्जातसंसृष्ट हों उसी से आहार-पानी लेने का प्रयत्न करना चाहिए / तज्जात का अर्थ है-देयवस्तु के समानजातीय वस्तु से लिप्त / 7. दशवं. (चाचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), 5. 1044 8. (क) माइप्णमि मिच्चस्थं प्राइन राज कुल-संखडिमाइ, तत्थ महाजण-विमद्दो पविसमाणस्स हत्थपादादिलूसण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org