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________________ 412] [वशवकालिकसूत्र प्रतिस्रोत के अधिकारी-सुविहियाणं आसवो (प्रासमो): पडिसोओ : आशय-सुविहित साधुओं के लिए इन्द्रिय विजय (प्राश्रव) करना अथवा साधुदीक्षारूप प्राश्रय को स्वीकार करना प्रतिस्रोत है। होउकामेण के दो अर्थ व्याख्याकारों ने किये हैं--(१) मुक्त होने की इच्छा वाला, अथवा (2) विषयभोगों से विरक्त होकर संयम की आराधना करना चाहने वाला। 'पडिसोअलद्धलक्खेणं' का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार धनुर्वेद या बाणविद्या में दक्ष व्यक्ति बालाग्न जैसे सूक्ष्मतम लक्ष्य को बींध देता है, उसी प्रकार विषयभोगों को त्यागने वाला संयम के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।" अणुसोयसुहो लोमो : भावार्थ-जिस प्रकार काष्ठ नदी के अनुस्रोत में सरलता से चला जाता है, किन्त प्रतिस्त्रोत में कठिनता से जाता है, उसी प्रकार संसारी जीवों को अनस्र रूप विषयभोगों की अोर ढलना सुखावह लगता है, किन्तु वे इन्द्रियविजयरूप प्रतिस्रोत की ओर सुखपूर्वक गमन नहीं कर सकते / विविक्तचर्या का बाह्य रूप-गाथा 563 में विविक्तचर्या के बाह्य रूप की एक झांकी दी है.---'चरिया गुणा य नियमा य / ' चरिया : चर्या के दो अर्थ इस प्रकार हैं-(१) आगे कही जाने वाली श्रमणभाव-साधिका अनियतवासादिरूप शुद्ध श्रमणचर्या, अथवा (2) मूलोत्तरगुणरूप चारित्र / गुणा:-(१) मूलोत्तरगुण, (2) अथवा ज्ञानादि गुण, तथा (3) मूलोत्तरगुणों की रक्षा के लिए जो भावनाएँ हैं, वे / तथा नियमाः-नियम-प्रतिमा (द्वादशविध भिक्षुप्रतिमा) एवं विशिष्ट प्रकार के अभिग्रह (संकल्प या प्रतिज्ञा आदि) / चर्या, गुण और नियम, ये तीनों मिलकर विविक्तचर्या का बाह्य रूप बनता है। विविक्तचर्या के पालन के तीन उपाय—प्रस्तुत बाह्य विविक्तचर्या के पालन के लिए शास्त्रकार ने तीन उपाय इसी गाथा में बताए हैं-(१) आयारपरक्कमेण, (2) संवरसमाहिबहुलेण, और (3) हुंति साहूण ददुष्या। तीनों का प्राशय क्रमशः इस प्रकार है-(१) साधु-साध्वी द्वारा ज्ञानादि पंचाचारों में सतत पराक्रम करने से, अथवा प्राचार को सतत धारण करने का सामर्थ्य प्राप्त करने से, (२)प्रायः इन्द्रिय-मन :संयमरूप संवरधर्म में चित्त को समाहित अनाकुल या अप्रकम्प रखने से तथा विविक्तचर्या के पूर्वोक्त तीनों अंगों (चर्या, गुण एवं नियम) पर प्रतिक्षण दृष्टिपात करते रहने से अथवा इन तीनों को शास्त्रनिर्दिष्ट समय के अनुसार आचरण करने से (जिस समय जो क्रिया प्रासेवन करने योग्य हो. उस समय उसका अवश्य प्रासेवन करने से) अर्थात--प्रागे पर न टालने से या उपेक्षा न करने से / 4. णिबाणगमणारहो 'भवि उकामो' होउकामो तेण होउकामेण / पासवो णाम इंद्रियजओ। -जि. चू., पृ.३६९ (ख) दशवं. (आचार्यश्री प्रात्मा.) पृ. 1041 (ग) 'भवितुकामेन'—संसारसमुद्रपरिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साधुना, न क्षुद्र-जनाचरितान्युदाहरणी कृत्यासन्मार्ग-प्रवणचेतोऽपि कर्तव्यम, अपित्वागमकप्रवणेनैव भवितव्यम् / ----हारि. व. पत्र 5. दशवै. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), 5.1041 6. जिन. चर्णि, 37 हरि. टीका पृ. 270 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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