________________ [413 द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या] भिक्षा, विहार और निवास आदि के रूप में एकान्त और पवित्र विविक्तचर्या 564. अणिएयवासो समुयाणचरिया, अण्णाय-उंछं परिक्कया य / अप्पोवही कलहविवज्जणा य, विहारचरिया इसिणं पसत्था // 5 // 565. आइण्ण-प्रोमाण-विवज्जणा य, उस्सन्नविट्ठाहड - भत्तपाणे / संसदकप्पेण चरेज्ज भिक्ख, तज्जायसंसट्ट जई जएज्जा // 6 // 566. अमज्ज-मसासि अमच्छरीया, अभिक्खणं +निम्विगईगया य / अभिक्खणं काउसम्गकारी, सज्झायजोगे पयओ हवेज्जा // 7 // 567. न पडिण्णवेज्जा सयणाऽऽसणाई, सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं / गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिचि कुज्जा // 8 // 568. गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा, अभिवायणं वंदणं पूयणं वा। असंकिलिहि समं वसेज्जा, मुणी चरित्तस्स जओ न हाणी // 9 // 569. न या लभेज्जा निउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एक्को वि पावाई विवज्जयंतो, विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो // 10 // 570. संवच्छरं वा वि परं पमाणं, बीयं च वासं न तहि वसेज्जा। सुत्तस्स मग्गेण चरेज्ज भिक्खू, सुत्तस्स प्रत्थो जह प्राणवेद // 11 // पाठान्तर-+ निश्विगई गया। पडिन्नविज्जा। * कहिं पि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org