SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय धूलिका : विविक्तवर्या] [411 562. अणुसोयसुहो लोगो, पडिसोओ आसवो* सुविहियाणं / अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो // 3 // 563. तम्हा प्रायारपरक्कमेण संवर-समाहि-बहुलेणं। चरिया गुणा य नियमा य, होति साहूण वट्ठम्वा // 4 // [561] (नदी के जलप्रवाह में गिर कर प्रवाह के वेग से समुद्र की ओर बहते हुए काष्ठ के समान) बहुत-से लोग अनुस्रोत (विषयप्रवाह के वेग से संसार-समुद्र) की ओर प्रस्थान कर रहे (बहे जा रहे हैं, किन्तु जो मुक्त होना चाहता है, जिसे प्रतिस्रोत (विषयभोगों के प्रवाह से विमुखविपरीत होकर संयम के प्रवाह) में गति करने का लक्ष्य प्राप्त है, उसे अपनी आत्मा को प्रतिस्रोत की पोर (सांसारिक विषयभोगों के स्रोत से प्रतिकूल) ले जाना चाहिए // 2 // [562] अनुस्रोत (विषयविकारों के अनुकल प्रवाह) संसार (जन्म-मरण की परम्परा) है और प्रतिस्रोत उसका उत्तार (जन्ममरण के पार जाना) है / साधारण संसारीजन को अनुस्रोत चलने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु सुविहित साधुओं के लिए प्रतिस्रोत प्राश्रव (इन्द्रिय-विजय) होता है // 3 // [563] इसलिए (प्रतिस्रोत की ओर गमन करने के लिए) प्राचार (-पालन) में पराक्रम करके तथा संवर में प्रचुर समाधियुक्त हो कर, साधुओं को अपनी चर्या, गुणों (मूल-उत्तरगुणों) तथा नियमों की अोर दृष्टिपात करना चाहिए / / 4 / / विवेचन-अनुस्रोत मार्ग और प्रतिस्रोत मार्ग : क्या, किसके लिए और कैसे ?--प्रस्तुत तीन गाथाओं (561 से 563 तक) में अनुस्रोतमार्ग की ओर गमन का निषेध और प्रतिस्रोतमार्ग-गमन का विधान करने के साथ ही दोनों का स्वरूप, उनके अधिकारी और प्रतिस्रोतमार्ग पर कैसे चला जाए ? इसका दिशानिर्देश किया गया है / अनस्रोत और प्रतिस्रोत--स्रोत अर्थात् जलप्रवाह / अनुलोत का अर्थ है-त्रोत के पीछे -पीछे, अथवा स्रोत के अनुकूल / जब जल का बहाव निम्न (नीचे) प्रदेश को ओर होता है, तब उसमें पड़ने वाली काठ आदि वस्तुएँ उसी बहाव के अनुकूल होकर बहती हैं / उसे अनुस्रोत-प्रस्थान कहते हैं / यह द्रव्य-अनुस्रोत है, प्रस्तुत में द्रव्य-अनुस्रोत की भांति भाव-अनुस्रोत बताया गया है। जैसे अनुस्रोतप्रस्थित काष्ठ की तरह जो सांसारिक जन इन्द्रियविषयों के स्रोत-प्रवाह में बहते जाते हैं, वे अनुस्रोतप्रस्थित हैं। प्रतिस्रोत का अर्थ है-प्रतिकलप्रवाह, उलटी दिशा में बहना / प्रस्तुत में भाव-प्रतिस्रोत है-शब्दादिविषयों के प्रवाह के प्रतिकल गमन करना अर्थात्-शब्दादिविषयों से निवृत्त होना / गाथा 562 में स्पष्ट बता दिया गया है कि अनुस्रोतगमन संसार का कारण है। यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके संसार के कारण को 'संसार' कहा गया है / तस्स उत्तारो पडिसोओ-उस संपार से पार होना अर्थात्-प्रतिस्रोतगमन मुक्ति का कारण है। * पाठान्तर- प्रासमो। 3. अगस्त्यचूणि, जिन. चूणि, पृ. 361 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy