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________________ कपटाचार माया कषाय है, माया जीवन की विकृति है। मायावी का जीवन निराला होता है। वह 'विषकुम्भं पयोमुखम्' होता है / माया कषाय के भी तीव्रता और मंदता की दृष्टि से पूर्ववत् चार प्रकार होते हैं। लोभ मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली तृष्णा व लालसा है / लोभ दुर्गुणों की जड़ -ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ बढ़ता चला जाता है। अनन्त आकाश का कहीं ओर-छोर नहीं, बसे ही लोभ भी अछोर है। लोभ कषाय के भी तीव्रता और मंदता के आधार पर पूर्ववत् चार प्रकार होते हैं / इस प्रकार कपाय के सोलह प्रकार होते हैं। कषाय को चाण्डालचौकड़ी भी कहा गया है। कषाय की तीव्रता अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय के फलस्वरूप जीव अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं बन सकता। अप्रत्याख्यानी कषाय में श्रावक धर्म स्वीकार नहीं कर सकता। अप्रत्याख्यानी कषाय अांशिक चारित्र को नष्ट कर देती है। प्रत्याख्यानी कषाय की विद्यमानता में साधुत्व प्राप्त नहीं होता। ये तीनों प्रकार के कषाय विशुद्ध निष्ठा को और चारित्र धर्म को नष्ट करते हैं। संज्वलन कषाय में पूर्ण वीतरागता की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए प्रात्महित चाहने वाला साधक पाप की वृद्धि करने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ-इन चारों दोषों को पूर्णतया छोड़ दे।'७० ये चारों दोष सदगुणों को नाश करने वाले हैं। क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का, माया से मित्रता का और लोभ से सभी सदगुणों का नाश होता है। 171 योगशास्त्र में प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है. मान विनय, श्रत, शील का घातक है, विवेकरूपी नेत्रों को नष्ट कर मानव को अन्धा बना देता है। जब क्रोध उत्पन्न होता है तो सर्वप्रथम उसी मानव को जलाता है जिसमें वह उत्पन्न हुआ है / माया अविद्या और असत्य को उत्पन्न करती है। वह शीलरूपी लहलहाते हुए वृक्ष को नष्ट करने में कुल्हाड़ी के सदृश है। लोभ से समस्त दोष उत्पन्न होते हैं। वह सद्गुणों को निगलने वाला राक्षस है और जितने भी दुःख हैं उनका वह मूल है। 172 प्रश्न यह है कि कषाय को किस प्रकार जीता जाए? इस प्रश्न का समाधान करते हुए प्राचार्य शय्यम्भव ने लिखा है-शान्ति से क्रोध को, मृदुता से मान को, सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिये। 173 प्राचार्य कुन्दकुद 174 तथा प्राचार्य हेमचन्द्र'७४ ने भी शय्यम्भव का ही अनुसरण किया है तथा बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद' 06 में भी यही स्वर झंकृत हुआ है कि अक्रोध से क्रोध को, साधुता से प्रसाधुता को जीते और कृपणता को दान से, मिथ्याभाषण को सत्य से पराजित करें। महाभारतकार व्यास ने भी इसी सत्य को अपने शब्दों में पुनरावृत्ति की है। 70 कषाय वस्तुतः आत्मविकास में अत्यधिक बाधक तत्त्व है। कपाय के नष्ट होने पर ही भव-परम्परा का अन्त होता है। कषायों से मुक्त होना ही सही दृष्टि से मुक्ति है। - - . .. ---- - 170. दशवकालिक 8 / 37 171. वही 8 / 38 172. योगशास्त्र 4 / 10 / 18 173. दशवकालिक 8139 174. नियमसार 115 175. योगशास्त्र 4 / 23 176. धम्मपद 223 177. महाभारत, उद्योगपर्व 39:42 [ 57 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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