________________ कषाय : एक विश्लेषण श्रमण को इन्द्रियनिग्रह के साथ कषायनिग्रह भी आवश्यक है। कषाय शब्द क्रोध, मान, माया, लोभ का संग्राहक है। यह जैन पारिभाषिक शब्द है। कष और प्राय इन दो शब्दों के मेल से कषाय शब्द निमित हमा है। 'कष' का अर्थ संसार, कर्म या जन्म-मरण है और आय का अर्थ लाभ है। जिससे प्राणी कर्मों से बांधा जाता है अथवा जिससे जीव पुनः-पुनः जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है वह कषाय है। स्थानांगसूत्र के अनुसार पापकर्म के दो स्थान हैं—राग और द्वेष / राग माया और लोभ रूप है तथा द्वेष क्रोध और मानरूप है। प्राचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विशेषावश्यकभाध्य में नयों के आधार से रागद्वेष का कषायों के साथ क्या सम्बन्ध है, इस पर चिन्तन किया है। संग्रहनय की दृष्टि से क्रोध और मान ये दोनों द्वेष रूप हैं / माया और लोभ ये दोनों राग रूप हैं। इसका कारण यह है कि क्रोध और मान में दूसरे के प्रति अहित की भावना सन्निहित है। व्यवहारनय की दृष्टि से क्रोध, मान और माया ये तीनों द्वेष के अन्तर्गत आते हैं। माया में भी दूसरे का अहित हो, इस प्रकार की विचारधारा रहती है। लोभ एकाकी राग में है, क्योंकि उसमें ममत्व भाव है। ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से केवल क्रोध ही द्वेष रूप है। मान-माया-लोभ ये तीनों कषाय न रागप्रेरित हैं और न द्वेषप्रेरित। वे जब राग से उत्प्रेरित होते हैं तो राग रूप है और जब द्वेष से प्रेरित होते हैं तो द्वष रूप हैं / 16 चारों कषाय राग-द्वेषात्मक पक्षों की प्रावेगात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। क्रोध एक उत्तेजक आवेग है जिससे विचारक्षमता और तर्कशक्ति प्रायः शिथिल हो जाती है। भगवतीसत्र में क्रोध के द्रव्य क्रोध और भावक्रोध ये दो भेद किए हैं। '66 द्रव्यत्रोध से शारीरिक चेष्टानों में परिवर्तन पाता है और भावक्रोध से मानसिक अवस्था में परिवर्तन आता है। क्रोध का अनभूत्यात्मक पक्ष भावक्रोध है और क्रोध का अभिव्यक्त्यात्मक पक्ष द्रव्य क्रोध है। क्रोध का आवेग सभी में एक सदृश नहीं होता, वह तीव्र और मंद होता है, तीव्रतम क्रोध अनंतानुबन्धी क्रोध कहलाता है। तीव्रतर क्रोध अप्रत्याख्यानी क्रोध के नाम से विश्रत है। तीव्र क्रोध प्रत्याख्यानी क्रोध की संज्ञा से पुकारा जाता है और अल्प क्रोध संज्वलन क्रोध के रूप में पहचाना जाता है। मान कषाय का दूसरा प्रकार है। मानव में स्वाभिमान की मूल प्रवृत्ति है। जब वह प्रवृत्ति दम्भ और प्रदर्शन का रूप ग्रहण करती है तब मानव के अन्तःकरण में मान की वृत्ति समुत्पन्न होती है / अहंकारी मानव अपनी अहंवत्ति का सम्पोषण करता रहता है। अहं के कारण वह अपने-माप को महान और समझता है। प्रायः जाति, कूल, बल, ऐश्वर्य, बुद्धि, ज्ञान, सौन्दर्य, अधिकार आदि पर अहंकार आता है। इन्हें आगम की भाषा में मद भी कहा गया है। अहंभाव की तीव्रता और मन्दता के आधार पर मान कषाय के भी चार प्रकार होते हैं-तीव्रतम मान अनन्तानुबन्धी मान, तीव्रतर मान अप्रत्याख्यानी मान, तीव्र मान प्रत्याख्यानी मान, अल्पमान संज्वलन के नाम से जाने और पहचाने जाते हैं। 166. अभिधान राजेन्द्रकोष, खण्ड 3, पृ. 395 167. स्थानांग 22 168. विशेषावश्यकभाष्य 2668-2671 169. भगवतीसूत्र 12 / 5 / 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org