________________ ममय बोले तो सेवा के लिए उठना पड़ेगा, अत: मौन रखल। इस प्रकार मोन कर वह उत्तर नहीं देता है तो वह मौन सही मौन नहीं है। अतः साधक को हर दृष्टि से चिन्तनपूर्वक बोलना चाहिए, उसकी बाणी पर विवेक का अंकुश हो। धम्मपद में कहा है कि जो भिक्ष वाणी में संयत है. मितभाषी है तथा विनीत है वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित करता है, उसका भाषण मधुर होता है / 50 सुत्तनिपात में उल्लेख है कि भिक्षु को अविवेकपूर्ण बचन नहीं बोलना चाहिए। वह विवेकपूर्ण वचन का ही प्रयोग करे। प्राचार्य मनु ने लिखा है मुनि को सदैव सत्य ही बोलना चाहिए / 158 महाभारत शान्तिपर्व में वचन-विवेक पर विस्तार से प्रकाश डाला है। 156 इन्द्रियसंयम : एक चिन्तन प्रस्तुत अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से उद्धत है।६० आठवें अध्ययन का नाम प्राचारप्रणिधि है। याचार एक विराट् निधि है। जिस साधक को यह अपूर्व निधि प्राप्त हो जाती है, उसके जीवन का कायाकल्प हो जाता है / उसका प्रत्येक व्यवहार अन्य साधकों की अपेक्षा पृथक हो जाता है। उसका चलना, बैठना, उठना सभी विवेकयुक्त होता है। वह इन्द्रियरूपी अश्वों को सन्मार्ग की ओर ले जाता है। उसकी मन-वचन-कर्म और इन्द्रियां उच्छृखल नहीं होती। वह शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में समभाव धारण करता है / राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्मबन्धन नहीं करता है-इन्द्रियों पर वह नियन्त्रण करता है। इन्द्रिय-संयम श्रमण-जीवन का अनिवार्य कर्तव्य है / यदि श्रमण इन्द्रियों पर संयम नहीं रखेगा तो श्रमणजीवन में प्रगति नहीं कर सकेगा / प्राय: इन्द्रियसुखों की प्राप्ति के लिए ही व्यक्ति पतित पाचरण करता है। इन्द्रियसंयम का अर्थ है-इन्द्रियों को अपने विषयों के ग्रहण से रोकना एवं गृहीत विषय में राग-द्वेष न करना / हमारे अन्तर्भानस में इन्द्रियों के विषयों के प्रति जो आकर्षण उत्पन्न होता है उनका नियमन किया जाए।१६' श्रमण अपनी पांचों इन्द्रियों को संयम में रखे और जहाँ भी संयममार्ग से पतन की संभावना हो वहाँ उन विषयों पर संयम करे। जैसे संकट समुपस्थित होने पर कछुआ अपने अंगों का समाहरण कर लेता है वैसे ही श्रमण इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का समाहरण करे।६२ बौद्ध श्रमणों के लिए भी इन्द्रियसंयम आवश्यक माना है। धम्मपद में तथागत बुद्ध ने कहानेत्रों का संयम उत्तम है, कानों का संयम उत्तम है, ध्राग और रसना का संयम भी उत्तम है, शरीर, बचन, और मन का संयम भी उत्तम है, जो भिक्ष सर्वत्र सभी इन्द्रियों का संयम रखता है वह दुःखों से मुक्त हो जाता है। 163 स्थितप्रज्ञ का लक्षण बतलाते हुए श्रीकृष्ण ने वीर अर्जुन को कहा--जिसकी इन्द्रियाँ वशीभूत हैं वही स्थितप्रज्ञ है। '14 इस प्रकार भारतीय परम्परा में चाहे श्रमण हो, चाहे संन्यासी हो उसके लिए इन्द्रियसंयम अावश्यक है। दशवकालिक नियुक्ति, 17 157. धम्ममद, 363 158. मनुस्मृति, 6 / 46 159. महाभारत, शान्तिपर्व, 109.15-19 160. सच्चप्पबायपुब्बा निज्जढा होइ वक्कसुद्धी उ / 161. प्राचारांग, 2 / 15 / 1 / 180 162. सूत्रकृतांग, 1181316 163. धम्मपद, 360-361 164. श्रीमद्भगवद्गीता, 2061 165. वही, 2059;64 [ 45 ] . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org