________________ लिए हैं वे परिग्रह नहीं हैं, क्योंकि उन वस्त्र-पात्रों में श्रमण की मूच्र्छा नहीं होती है। वे तो संयम और लज्जा के लिए धारण किए जाते हैं। वे बस्त्र-पात्र संयम-साधना में उपकारी होते हैं, इसलिए वे धर्मोपकरण हैं।" इस प्रकार परिग्रह की बहुत ही सटीक परिभाषा प्रस्तुत अध्ययन में दी गई है। 153 वाणी-विवेक : एक विश्लेषण सातवें अध्ययन का नाम वाक्य शुद्धि है। जैनधर्म ने वाणी के विवेक पर अत्यधिक बल दिया है। मौन रहना वचनगुप्ति है / विवेकपूर्वक वाणी का प्रयोग करना भाषासमिति है। श्रमण असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता। वह स्त्रीविकथा, राजदेविकथा, चोरविकथा, भोजनविकथा आदि वचन की अशुभ प्रवत्ति, का परिहार करता है। 54 वह अशुभप्रवृत्तियों में जाते हुए वचन का निरोध कर वचनगुप्ति का पालन करता है। '55 मुनि प्रमाण, नय, निक्षेप से युक्त अपेक्षा दृष्टि से हित, मित, मधुर तथा सत्य भाषा बोलता है।०५६ श्रमण साधना की उच्च भूमि पर अवस्थित है अत: उसे अपनी वाणी पर बहत ही नियंत्रण और सावधानी रखनी होती है। श्रमण सावध और अनवद्य भाषा का विवेक रखकर बोलता है। इस प्रकार वचनसमिति का लाभ वक्ता और श्रोता दोनों को मिलता है। प्रस्तुत अध्ययन में श्रमण को किस प्रकार की भाषा बोलनी चाहिए और किस प्रकार की भाषा नहीं बोलनी चाहिए, इस सम्बन्ध में चिन्तन करते हए कहा गया है कि श्रमण असत्य भाषा का प्रयोग न करे और सत्यासत्य यानी मिश्रभाषा का भी प्रयोग न करे, क्योंकि असत्य और मिश्र भाषा सावध होती है। सावद्यभाषा से कर्मवन्ध होता है। जिस श्रमण को सावध और अनवद्य का विवेक नहीं है, उसके लिए मौन रहना ही अच्छा है। प्राचारांगसूत्र में मुनि के लिए मौन का विधान है-'मणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरग'-मुनि मौन-संयम को स्वीकार कर कर्मबन्धनों का क्षय करता है। सत्य और असत्यामृषा अर्थात् व्यवहार भाषा का प्रयोग यदि निरवद्य है तो उस भाषा का प्रयोग श्रमण कर सकता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को बताने वाली भाषा सत्य होने पर भी यदि किसी के दिल में दर्द पैदा करती है तो वह भाषा श्रमण को नहीं बोलनी चाहिए। जैसे अन्धे को अन्धा कहना, काने को काना कहना / सत्य होने पर भी वह अवक्तव्य है। बोलने के पूर्व साधक को सोचना चाहिए कि वह क्या बोल रहा है? विज्ञ बोलने से पूर्व सोचता है तो मूर्ख बोलने के बाद में सोचता है। एक बार जो अपशब्द मुह से निकल जाते हैं, उनके बाद केवल पश्चात्ताप हाथ लगता है। वाणी के असंयम ने ही महाभारत का युद्ध करवाया, जिसमें भारत की विशिष्ट विभूतियाँ नष्ट हो गई / इस प्रकार वाणी का प्रयोग प्राचार का प्रमुख अंग होने के कारण उस पर सूक्ष्म चितन इस अध्ययन में किया गया है। विवेकहीन वाणी और विवेकहीन मौन दोनों पर ही नियुक्तिकार भद्रबाहु ने चिन्तन किया है। जिस श्रमण में बोलने का विवेक है, भाषासमिति का पूर्ण परिज्ञान है वह बोलता हुआ भी मौनी है और अविवेकपूर्वक जो मौन रखता है, उसका मौन वाणी तक तो सीमित रहता है पर अन्तर्मानस में विकृत भावनाएं पनप रही हो तो वह मौन सच्चा मौन नहीं है। उदाहरण के रूप में कोई श्रमण रुग्ण है, गुरुजन रात्रि में शिष्य को आवाज देते हैं। यदि शिष्य सोचे कि इस 153. तिविहे परिग्गहे पं. तं.-कम्मपरिगहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरभंडमत्तपरिग्गहे। -स्थानांग 3.95 154-156. दशवकालिक / [ 44 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org