________________ प्रयोग है / तीनों के संयोग से सत्य का पूर्ण साक्षात्कार होता है। शान का सार माचरण है और पाचरण का सार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है। छठे अध्ययन का अपर नाम 'धर्मार्थकाम' मिलता है। मुर्धन्य मनीषियों की कल्पना है कि इस अध्ययन की चौथी गाथा में 'हंदि धमत्थकामाणं' शब्द का प्रयोग हुआ है, इस कारण इस अध्ययन का नाम धर्मार्थकाम हो गया है। यहाँ पर धर्म से अभिप्राय मोक्ष है। श्रमण मोक्ष की कामना करता है। इसलिए श्रमण का विशेषण धर्मार्थकाम है। श्रमण का आचार-गोचर अत्यधिक कठोर होता है। उस कठोर प्राचार का प्रतिपादन प्रस्तुत अध्ययन में हुआ है, इसलिए संभव है इसी कारण इस अध्ययन का नाम धर्मार्थकाम रखा हो।' 45 इस अध्ययन में स्पष्ट शब्दों में लिखा है, जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं उन्हें मुनि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते और उनका उपयोग करते हैं / सब जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने वस्त्र प्रादि को परिग्रह नहीं कहा है। मूर्छा परिग्रह है, ऐसा महर्षि ने कहा / श्रमणों के वस्त्रों के सम्बन्ध में दो परम्पराएँ रही हैं-दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से श्रमण वस्त्र धारण नहीं कर सकता तो श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से श्रमण वस्त्र को धारण कर सकता है। प्राचारचूला में श्रमण को एक वस्त्र सहित, दो वस्त्र सहित प्रादि कहा है।' 46 उत्तराध्ययन में श्रमण की सचेल और अचेल' इन दोनों अवस्थाओं का वर्णन है / '40 प्राचारांग में जिनकल्पी श्रमणों के लिए शीतऋतु व्यतीत हो जाने पर अचेल रहने का भी विधान है।'४६ प्रशमरतिप्रकरण में प्राचार्य उमास्वाति ने धर्म-देहरक्षा के निमित्त अनुज्ञात पिण्ड, शैया आदि के साथ वस्त्रषणा का भी उल्लेख किया है। '46 उन्होंने उसी ग्रन्थ में श्रमणों के लिए कौनसी वस्तु कल्पनीय है और कौनसी वस्तु अकल्पनीय है, इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए वस्त्र का उल्लेख किया है।'५० तत्त्वार्थ भाष्य में एषणासमिति के प्रसंग में वस्त्र का उल्लेख किया है। इस प्रकार श्वेताम्बरसाहित्य में अनेक स्थलों पर वस्त्र का विधान श्रमणों के लिए प्राप्त है। आगमसाहित्य में सचेलता और अचेलता दोनों प्रकार के विधान मिलते हैं। अब प्रश्न यह है-श्रमण निग्रन्थ अपरिग्रही होता है तो फिर वह वस्त्र किस प्रकार रख सकता है ? भंडोपकरण को भी परिग्रह माना गया है'५२ पर प्राचार्य शय्यम्भव ने कहा—'जो आवश्यक वस्त्र-पात्र संयम साधना के 145. धम्मस्स फलं मोक्खो, सासयमउलं सिवं अणावाहं / तमभिष्पेया साहु, तम्हा धम्मत्थकाम ति // --दशवकालिक नि. 265 146. जे निग्गंथे तरुणे जूगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एग वत्थ धारिज्जा नो वीयं ।-प्रायार-चूला 22 147. एगयाऽचेलए होई, सचेले प्रावि एगया / एयं धम्महियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए / -उत्तराध्ययन 2013 148. उवाइक्कते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाई वत्थाई परिविज्जा, अदुवा प्रोमचेले अदुवा एगसाड़े अदुवा अचेले। -आचारांग 8.50-53 149. पिण्डः शय्या वस्त्रषणादि पात्रैषणादि यच्चान्यत् / कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम् / / -प्रशमरतिप्रकरण 138 150. किचिच्छुद्ध कल्प्यमकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् / पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भैषजाय वा / / -प्रशभरतिप्रकरण 145 152. अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य च उदगमोत्पादनैषणादोष वर्जनम् एषणा समितिः। तत्त्वार्थभाष्य 9 / 5 [ 43 } Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org