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________________ दोष लगते हैं, वे एषणा के दोष कहलाते हैं / ये दोष विधिपूर्वक आहार न लेने और विधिपूर्वक आहार न देने तथा शुद्धाशुद्ध की छानबीन न करने से उत्पन्न होते हैं। भोजन करते समय भोजन की सराहना और निन्दा अादि करने से जो दोष पैदा होते हैं वे परिभोगेपणा दोष कहलाते हैं। प्रागमसाहित्य में ये सैतालीस दोष यत्रतत्र वणित हैं, जैसे—स्थानांग के नौवें स्थान में आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतरक, पूतिकर्म, कृतकृत्य, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्याहृत ये दोष बताएं हैं। 135 निशीथसूत्र में धातृपिण्ड, दूतीपिण्ड, निमित्तपिण्ड, आजीवपिण्ड, बनीपकपिण्ड, चिकित्सापिण्ड, कोपपिण्ड, मानपिण्ड, मायापिण्ड, लोभपिण्ड, विद्यापिण्ड, मंत्रपिण्ड, चूर्ण पिण्ड, योगपिण्ड और पूर्व-पश्चात्-संस्तव ये बतलाये हैं / '40 आचारचला में परिवर्त का उल्लेख है।' 41 भगवती में अंगार, धुम, संयोजना, प्राभतिका और प्रमाणातिरेक दोष मिलते हैं / ' 42 प्रश्नव्याकरण में मूल कर्म का उल्लेख है। दशवकालिक में उभिन्न, मालापहृत, अध्यवतर, शङ्कित, म्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और छदित ये दोष पाए हैं। 43 उत्तराध्ययन में कारणातिकान्त दोष का उल्लेख है / 144 श्रमणाचार : एक अध्ययन __छठे अध्ययन में महाचारकथा का निरूपण है। तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक ग्राचारकथा का वर्णन था / उस अध्ययन की अपेक्षा यह अध्ययन विस्तृत होने से महाचारकथा है। तृतीय अध्ययन में अनाचारों की एक सूची दी गई है किन्तु इस अध्ययन में विविध दृष्टियों से अनाचारों पर चिन्तन किया गया है। तृतीय अध्ययन की रचना श्रमणों को अनाचारों से बचाने के लिए संकेतसूची के रूप में की गई है, तो इस अध्ययन में साधक के अन्तर्मानस में उबुद्ध हुए विविध प्रश्नों के समाधान हेतु दोषों से बचने का निर्देश है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि तृतीय अध्ययन में अनाचारों का सामान्य निरूपण है तो इस अध्ययन में विशेष निरूपण है / यत्र-तत्र उत्सर्ग और अपवाद की भी चर्चा की गई है / उत्सर्ग में जो बातें निषिद्ध कही गई हैं, अपवाद में वे परिस्थितिवश ग्रहण भी की जाती हैं। इस प्रकार इस अध्ययन में सहेतुक निरूपण हुआ है। आध्यात्मिक साधना की परिपूर्णता के लिए श्रद्धा और ज्ञान, ये दोनों पर्याप्त नहीं हैं किन्तु उसके लिए पाचरण भी आवश्यक है / बिना सम्यक् प्राचरण के प्राध्यात्मिक परिपूर्णता नहीं पाती / सम्यक् आचरण के पूर्व सम्यग्दर्शन और सम्यगज्ञान प्रावश्यक है / सम्यग्दर्शन का अर्थ श्रद्धा है और सम्यग्ज्ञान अर्थ-तत्त्व का साक्षात्कार है। श्रद्धा और ज्ञान की परिपूर्णता जैन दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान में हो जाती है किन्तु सम्यक्चारित्र की पूर्णता न होने से मोक्ष प्राप्त नहीं होता। चौदहवें गुणस्थान में सम्यकचारित्र की पूर्णता होती है तो उसी क्षण प्रात्मा मुक्त हो जाता है। इस प्रकार प्राध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में उठाया गया कदम, अन्तिम चरण है। सम्यग्दर्शन परिकल्पना है, सम्यग्ज्ञान प्रयोग विधि है और सम्यक्चारित्र ....----- - -- - 139. स्थानांग 9 / 62 140. निशीथ, उद्देशक 12 141. प्राचारचूला 1121 142. भगवती 7 / 1 143. दशवकालिक, अध्ययन 5 144. उत्तराध्ययन 26633 [ 42 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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