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________________ चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना या खाने वाले व्यक्ति के द्वारा अपने हाथ से कवल उठाया गया हो पर खाया न गया हो, उसे ग्रहण करना, 7. उज्झितधर्मा—जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य है, उसे लेना। 32 भिक्षा : ग्रहणविधि–प्रस्तुत अध्ययन में बताया है कि श्रमण आहार के लिए जाए तो गृहस्थ के घर में प्रवेश करके शूद्ध पाहार की गवेषणा करे। वह यह जानने का प्रयास करे कि यह पाहार शुद्ध और निर्दोष है या नहीं ? 13 3 इस पाहार को लेने से पश्चात् कर्म ग्रादि दोष तो नहीं लगेंगे ? यदि आहार अतिथि आदि के लिए बनाया गया हो तो उसे लेने पर गृहस्थ को दोबारा तैयार करना पड़ेगा या गृहस्थ को ऐसा अनुभव होगा कि मेहमान के लिए भोजन बनाया और मुनि बीच में ही आ टपके / उनके मन में नफरत की भावना हो सकती है, अतः वह पाहार भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी गर्भवती महिला के लिए बनाया गया हो वह खा रही हो और उसको अन्तराय लगे वह प्राहार भी श्रमण ग्रहण न करे / 134 गरीब और भिखारियों के लिए तैयार किया हया ग्राहार भिक्षु के लिए अकल्पनीय है।३५ दो साझीदारों का ग्राहार हो और दोनों की पूर्ण सहमति न हो तो वह अाहार भी भिक्षु ग्रहण न करे।'३६ इस तरह भिक्षु प्राप्त आहार की प्रागम के अनुसार एपणा करे / वह भिक्षा न मिलने पर निराश नहीं होता। वह यह नहीं सोचता कि यह कैसा गांव है, जहाँ भिक्षा भी उपलब्ध नहीं हो रही है ! प्रत्युत वह सोचता है कि अच्छा हुआ, ग्राज मुझे तपस्या का सुनहरा अवसर अनायास प्राप्त हो गया। भगवान महावीर ने कहा है कि श्रमण को ऐसी भिक्षा लेनी चाहिए जो नवकोटि परिशुद्ध हो अर्थात् पूर्ण रूप से हिसक हो। भिक्षु भोजन के लिए न स्वयं जीव-हिसा करे और न करवाए तथा न हिमा करते हुए का अनुमोदन करे। न वह स्वयं अन्न पकाए, न पकवाए और न पकाते हुए का अनुमोदन करे तथा न स्वयं मोल ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे / 137 श्रमण को जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह भिक्षा से ही प्राप्त होता है। इसीलिए कहा है- "सव्वं से जाइयं होई णत्थि किचि अजाइयं / ' 138 भिक्षु को सभी कुछ मांगने से मिलता है, उसके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जो अयाचित हो / याचना परीषह है / क्योंकि दूसरों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है, अहिंसा के पालक श्रमण को वैसा करना पड़ता है किन्तु उसकी भिक्षा पूर्ण निर्दोष होती है। वह भिक्षा के दोषों को टालता है। प्रागम में भिक्षा के निम्न दोष बताये हैं-उद्गम और उत्पादना के सोलह-सोलह और एषणा के दस, ये सभी मिलाकर बयालीस दोष होते हैं। पांच दोष परिभोगषणा के हैं। जो दोष गृहस्थ के द्वारा लगते हैं, वे दोष उद्गम दोष कहलाते हैं, ये दोष पाहार की उत्पत्ति संबंधी हैं। साधु के द्वारा लगने वाले दोष उत्पादना के दोष कहलाते हैं / ग्राहार को याचना करते समय ये दोष लगते हैं / साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा जो 132 (क) मायारचूला 1 / 141-147 (ख) स्थानांग 71545 वृत्ति, पत्र 386 (ग) प्रवचनसारोद्धार गाथा 739-743 133. दशवकालिक 5 / 127; 5 / 1656 134. वही 5 / 1 / 25 135. वही 5 / 1139 136. वही 5 / 1147 137. णवकोडि परिसुद्ध भिक्खे पण्णत्ते......... स्थानांग 9 / 3 138. उत्तराध्ययन 2028 [ 41 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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