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________________ और भिक्षणियां उतनी सजग नहीं रहीं जितनी जैन परम्परा के श्रमण और श्रमणियां सजग रहीं। आज भी जैन श्रमण-श्रमणियों के द्वारा महाव्रतों का पालन जागरूकता के साथ किया जाता है जबकि बौद्ध और वैदिक परम्परा उनके प्रति बहुत ही उपेक्षाशील हो गई है। नियमों के पालन की शिथिलता ने ही तथागत बुद्ध के बाद बौद्ध भिक्ष संघ में विकृतियां पैदा कर दी। * महाव्रतों के वर्णन के पश्चात् प्रस्तुत अध्ययन में विवेक-युक्त प्रवृत्ति पर बल दिया है / जिस कार्य में विवेक का आलोक जगमगा रहा है, वह कार्य कर्मवन्धन का कारण नहीं और जिस कार्य में विवेक का अभाव है, उस कार्य से कर्मबन्धन होता है। जैसे प्राचीन यूग में योद्धागण रणक्षेत्र में जब जाते थे तब शरीर पर कवच धारण कर लेते थे। कवच धारण करने से शरीर पर तीक्ष्ण बाणों का कोई असर नहीं होता, कवच से टकराकर बाण नीचे गिर जाते, वैसे ही विवेक के कवच को धारण कर साधक जीवन के क्षेत्र में प्रवत्ति करता है / उस पर कर्मबन्धन के बाण नहीं लगते / विवेकी साधक सभी जीवों के प्रति समभाव रखता है, उसमें 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भव्य भावना अंगडाइयां लेती है। इसलिए वह किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुंचाता / इस अध्ययन में इस बात पर भी बल दिया गया है कि पहले ज्ञान है, उसके पश्चात् चारित्र है / ज्ञान के प्रभाव में चारित्र सभ्यक नहीं होता। पहले जीवों का ज्ञान होना चाहिए, जिसे षड्जीवनिकाय का परिज्ञान है, वही जीवों के प्रति दया रख सकेगा / जिसे यह परिज्ञान ही नहीं है-जीव क्या है, अजीव क्या है, वह जीवों की रक्षा किस प्रकार कर सकेगा? इसीलिए मुक्ति का प्रारोहक्रम जानने के लिए इस अध्ययन में बहुत ही उपयोगी सामग्री दी गई है। जीवाजीवाभिगम, आचार, धर्म प्रज्ञप्ति, चरित्रधर्म, चरण और धर्म ये छहों षड्जीवनिकाय के पर्यायवाची हैं।' 26 नियुक्तिकार भद्रबाहु के अभिमतानुसार यह अध्ययन प्रात्मप्रवादपूर्व से उद्धृत है / ' 26 एषणा: विश्लेषण पांचवें अध्ययन का नाम पिण्डषणा है / पिण्ड शब्द "पिंडी संघाते' धातु से निर्मित है। चाहे सजातीय पदार्थ हो या विजातीय, उस ठोस पदार्थ का एक स्थान पर इकट्ठा हो जाना पिण्ड कहलाता है / पिण्ड शब्द तरल और ठोस दोनों के लिए व्यवहृत हुआ है। प्राचारांग में पानी की एषणा के लिए पिण्डैषणा शब्द का प्रयोग हया है। 30 संक्षेप में यदि कहा जाय तो अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, इन सभी की एषणा के लिए पिण्डषणा शब्द का व्यवहार हुआ है।'' दोषरहित शुद्ध व प्रासुक आहार आदि की एषणा करने का नाम पिण्डैषणा है / पिण्डैषणा का विवेचन आचारचूला में विस्तार से हुआ है। उसो का संक्षेप में निरूपण इस अध्ययन में है। स्थानांगसत्र में पिण्डषणा के सात प्रकार बताए हैं—१. संसृष्टा-देय वस्तु से लिप्त हाथ या कडछी आदि से देने पर भिक्षा ग्रहण करना, 2. असंसृष्ट--देय वस्तु से अलिप्त हाथ या कडछी आदि से भिक्षा देने पर ग्रहण करना, 3. उद्धृता-अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुअा आहार ग्रहण करना, 4. अल्पलेपा-अल्पलेप वाली यानी चना, बादाम, पिस्ते, द्राक्षा आदि रूखी वस्तुएं लेना, 5. अवगहीता-खाने के लिए थाली में परोसा हा आहार लेना, 6. प्रगहीता–परोसने के लिए कडछी या 128 जीवाजीवाभिगमो, आयारो चेव धम्मपन्नत्ती / तत्तो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे अ एगट्ठा // -दशवकालिक नियुक्ति 4 / 233 129 प्रायप्पवायपुवा निब्बूढा होइ धम्मपन्नत्ती / / दशवकालिक नि०१६ 130 आचारांग 131 पिण्डनियुक्ति, गाथा 6 / [ 40 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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