________________ समय भिक्ष को अपनी स्मृति को संभाले रखना चाहिए।'१६ भिक्षु का एकान्त स्थान में भिक्षणी के साथ बैठना भी अपराध माना गया है।' 20 बौद्ध भिक्ष के लिए विधान है कि वह स्वयं असत्य न बोले, अन्य किसी से असत्य न बुलवावे और न किसीको असत्य बोलने की अनुमति दे / '21 बौद्ध भिक्षु सत्यवादी होता है, वह न किसी की चुगली करता है और न कपटपूर्ण वचन ही बोलता है। '22 बौद्ध भिक्ष के लिए विधान है—जो वचन सत्य हो, हितकारी हो, उसे बोलना चाहिए / ' 23 जो भिक्ष जानकर असत्य वचन बोलता है, अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करता है तो वह प्रायश्चित्त योग्य दोष माना है / 1 24 गृहस्थोचित भाषा बोलना भी बौद्ध भिक्षु के लिए वयं है। 25 बौद्ध भिक्षु के लिए परिग्रह रखना बजिन माना गया है। भिक्षु को स्वर्ण, रजत आदि धातुओं को ग्रहण नहीं करना चाहिए।' 26 जीवनयापन के लिए जितने वस्त्र-पात्र अपेक्षित हैं, 'उनसे अधिक नहीं रखना चाहिए / यदि वह आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो दोषी है / बौद्ध भिक्षु के लिए तीन चीवर, भिक्षापात्र, पानी छानने के लिए छन्ने से युक्त पात्र आदि सीमित वस्तु रख सकता है। यहां तक कि भिक्षु के पास जो सामग्री है उसका अधिकारी संघ है। वह उन वस्तुओं का उपयोग कर सकता है पर उसका स्वामी नहीं है। शेष जो चार शील है—मद्यपान, विकाल भोजन, नृत्यगीत; उच्चशय्यावर्जन आदि का महाव्रत के रूप में उल्लेख नहीं है पर वे श्रमणों के लिए वर्त्य हैं / दस भिक्षु शील और महाव्रतों में समन्वय की दृष्टि से देखा जाय तो बहुत कुछ समानता है, तथापि जैन श्रमणों की प्राचारसंहिता में और बौद्ध परम्परा की प्राचारसंहिता में अन्तर है। बौद्ध परम्परा ने भी दस भिक्ष शीलों के लिए मन-वचन-काया तथा कृत, कारित, अनुमोदित की नव कोटियों का विधान है पर वहाँ औशिक हिंसा से बचने का विधान नहीं है। जैन श्रमण के लिए यह विधान है कि यदि कोई गहस्थ साधू के निमित्त हिंसा करता है और यदि श्रमण को यह ज्ञात हो जाय तो वह आहार आदि ग्रहण नहीं करता / जैन श्रमण के निमित्त भिक्षा तैयार की हुई हो या आमंत्रण दिया गया हो तो वह किसी भी प्रकार का आमंत्रण स्वीकार नहीं करता / बुद्ध, अपने लिए प्राणीवध कर जो मांस तैयार किया होता उसे निषिद्ध मानते थे पर सामान्य भोजन के सम्बन्ध में, चाहे वह भोजन प्रौद्देशिक हो, वे स्वीकार करते थे / वे भोजन आदि के लिए दिया गया आमंत्रण भी स्वीकार करते थे। इसका मूल कारण है अग्नि, पानी आदि में बौद्ध परम्परा ने जैन परम्परा की तरह जीव नहीं माने है। इसलिए सामान्य भोजन में प्रौद्देशक दृष्टि से होने वाली हिंसा की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। बौद्ध परम्परा में दस शीलों का विधान होने पर भी उन शीलों के पालन में बौद्ध भिक्ष 119 दिघनिकाय 2 / 3 101 विनयपिटक, पातिमोक्ख पाचितिय धम्म, 30 121 सुत्तनिपात, 26 / 22 122 सुत्तनिपात 537; 9 123 मज्झिमनिकाय, अभय राजसुत्त 124 विनयपिटक, पातिमोवख पाचितिय धम्म 1-2 125 संयुक्तनिकाय 4211 126 विनयपिटक, महावग्ग 1156, चल्लवग्ग 1211; पातिमोक्ख-निसग्ग पाचितिय 18 127 बुद्धिज्म इट्स कनेक्शन विथ ब्राह्माणिज्म एण्ड हिन्दूज्म, पृ. 81-82 -मोनियर विलीयम्स चौखम्बा, वाराणसी 1964 ई. [ 39] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org