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________________ 406] [वशवकालिकसूत्र के) लाभ और उनके (विनयादि) उपायों को विशेष रूप से जान कर काय, वाणी और मन, इन तीन गुप्तियों से गुप्त होकर जिनवचन (प्रवचन) का आश्रय ले / / 18 / / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-प्रवज्यात्याग के विचार से विरति के चिन्तनसूत्र-प्रस्तुत 4 गाथानों (556 से 556 तक) में संयमत्याग का विचार सम्यक् चिन्तनपूर्वक स्थगित रखने की प्रेरणा दी गई है। संयम में दढ़ता के विचार-(१) गाथा 556 का प्राशय यह है कि संयम पालते हुए किसी प्रकार का दु:ख पा पड़ने पर उसके कारण संयम से विचलित होने की अपेक्षा उन दुःखों को सहन करने की शक्ति और संयम में दृढ़ता कैसे प्राप्त हो? इसके लिए इस प्रकार चिन्तन करना चाहिएइस जीव ने महादुःखपूर्ण एवं एकान्त क्लेशमय नरकगति में अनन्त बार जाकर वहाँ के शारीरिकमानसिक दुःखों को पल्योपमों और सागरोपमों जितने दीर्घकाल पर्यन्त सहन किया है, तो फिर संयमजीवन में उत्पन्न हुया यह दुःख तो है ही कितना ! यह तो सिन्धु में बिन्दु के बराबर है / जिस प्रकार अनन्तकाल तक का वह दुःख भोग कर क्षय किया गया था, उसी प्रकार यह दु:ख भी भोगने से क्षीण हो जाएगा। अतः मुझे संयम में दढता धारण करनी चाहिए, उसका परित्याग करना उचित नहीं। नरक के दुःखों का यह महत्त्वपूर्ण दृष्टान्त साहस एवं धैर्य की हिलती हुई दीवार को अतीव सुदृढ़ बनाने वाला है। (2) गाथा 557 का प्राशय यह है कि यदि किसी कष्ट के कारण संयम में अरति उत्पन्न हो जाए तो साधु को इस प्रकार विचार करना चाहिए-मुझे जो यह दुःख हुअा है, वह चिरकाल तक नहीं रहेगा-कुछ ही दिनों में दूर हो जाएगा, क्योंकि दु:ख के बाद सुख प्राता ही है। दूसरी बात यह है कि रह-रह कर जो भोग-पिपासा जागृत होती है, जिसके कारण मेरा मन संयम से विचलित हो जाता है, वह अशाश्वत है। इसकी अधिकता यौवन वय तक ही रहती है, उसके बाद तो यह स्वयमेव ढीली पड़ जाती है। अतः मैं इस क्षणिक भोग-पिपासा के चक्कर में क्यों पड़ ! कदाचित् यह भी मान लें कि यह वृद्धावस्था तक पिण्ड नहीं छोड़ेगी; तब भी कोई बात नहीं। मृत्यु के समय तो इसे अवश्य ही हट जाना या मिट जाना पड़ेगा। प्राशय यह है कि जब शरीर ही अनित्य है तो भोग-पिपासा कैसे नित्य हो सकती है ! ये वैषयिक सुख या संयमपालन में उत्पन्न होने वाले दुःख, दोनों ही अस्थिर-अनित्य हैं। अतः नश्वर भोग-पिपासाजनित वैषयिक सुख एवं संयमजनित दुःख के कारण अनन्त कल्याणकारी संयम का कथमपि त्याग नहीं करना चाहिए। (3) तृतीय गाथा 558 में कहा गया है कि उपर्युक्त चिन्तन के आधार पर जब साधक की आत्मा ऐसा दृढ़ निश्चय (संकल्प) कर लेती है कि मेरा शरीर भले ही चला जाए, परन्तु मेरे सद्धर्म का अनुशासन (मौलिक नियम) नहीं जाना चाहिए, अथवा मेरा संयमी जीवन कदापि नहीं जाना चाहिए, क्योंकि शरीर (जीवन) छूट जाने पर जीर्ण शरीर के बदले नया सुन्दर शरीर मिल सकता है, परन्तु आध्यात्मिक जीवन की मृत्यु हो जाने के बाद उसे पुन: प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है / ऐसे दृढनिश्चयी मुनि को चंचल इन्द्रियाँ उसी प्रकार धर्मपथ से डिगा कर वैषयिक सुखों में लुभायमान नहीं कर सकतीं. जिस प्रकार प्रलयकाल की प्रचण्ड महावायू पर्वतराज सुमेरु को कम्पायमान नहीं कर सकती। अतः आत्मार्थी मुनि इस प्रकार का दृढ़ संकल्प करके श्रमणधर्म में दृढ़ता धारण करके स्वयं को विषयवासना के बीहड़ से अपनी आत्मा को पृथक् रखे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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