________________ प्रथम चूलिका : रतिवाक्या [405 श्रमणजीवन में बढ़ता के लिए प्रेरणासूत्र 556. इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो। पलिग्रोवमं झिज्जइ सागरोवमं किमंग! पुण मजा इमं मणोदुहं ? // 15 // 557. न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई, प्रसासया भोग-पिवास जंतुणो। न चे सरीरेण इमेणऽवेस्सई, अवेस्सई जीवियपज्जवेण मे // 16 // 558. जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ, 'चएज्ज देहं, न उ धम्मसासणं / ' तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया, उर्वतवाया व सुदंसणं गिरि // 17 // 559. इच्चेव संपस्सिय बुद्धिमं नरो, आयं उवायं विविहं वियाणिया। काएण वाया अदु माणसेणं, तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणहिट्ठज्जासि // 18 // -त्ति बेमि // रइवक्कचूला नाम पढमा चूला समत्ता / [एक्कारसमं रइवक्कऽज्झयणं समत्तं] [556] दुःख से युक्त और क्लेशमय मनोवृत्ति वाले इस (नारकीय) जीव की (नरकसम्बन्धी) पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है, तो फिर हे जीव ! मेरा यह मनोदुःख तो है ही क्या ? अर्थात्---कितने काल का है, (कुछ भी नहीं) // 15 / / [557] 'मेरा यह दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा, (क्योंकि) जीवों की भोग-पिपासा अशाश्वत है / यदि वह इस शरीर से (शरीर के होते हुए) न मिटी, तो मेरे जीवन के अन्त (के समय) में तो वह अवश्य ही मिट जाएगी / / 16 / / [558] जिसकी आत्मा इस (पूर्वोक्त) प्रकार से निश्चित (दृढ-संकल्पयुक्त) होती है वह शरीर को तो छोड़ सकता है, किन्तु धर्मशासन को नहीं छोड़ सकता / ऐसे दृढ़प्रतिज्ञ साधु (या साध्वी) को इन्द्रियाँ उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं, जिस प्रकार वेगपूर्ण गति से आता हुआ महावात सुदर्शनगिरि (मेरुपर्वत) को / / 17 / / [556] बुद्धिमान् मनुष्य इस प्रकार सम्यक् विचार कर तथा विविध प्रकार के (ज्ञानादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org