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________________ 404] विशवकालिकसूत्र लोग उसमें मधु, घृत आदि श्रेष्ठ वस्तुएँ पाहुति के रूप में डालते रहते हैं और उसे हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हैं। किन्तु बुझ जाने के बाद भस्मीभूत हुई उसी यज्ञाग्नि को लोग बाहर फेंक देते हैं, पैरों तले रौंदते हुए चले जाते हैं। इसी प्रकार सर्प के मुंह में जब तक दाढ़ें रहती हैं, तब तक सब लोग उससे दूर भागते और डरते हैं, किन्तु मदारी द्वारा जब उसकी दाढ़ें निकाल दी जाती हैं तो उस सर्प से छोटे-छोटे बच्चे भी नहीं डरते हैं। उसके मुंह में लकड़ी ठंसते हैं, उसे छेड़ते हैं। ऐसा ही लज्जाजनक तिरस्कार मुनिपदभ्रष्ट व्यक्तियों का होता है। (2) जो व्यक्ति सांसारिक भोग-विलासों के लोभ से श्रमणधर्म से भ्रष्ट एवं पतित होकर गृहीत व्रतों को खण्डित करता है, गृहवास में आकर अधार्मिक कृत्य करने लग जाता है, इस लोक में शुभ पराक्रम न होने से उसकी अपकीर्ति और बदनामी होती है, तथा प्राकृत श्रेणी के साधारण अज्ञ लोगों द्वारा भी वह धर्मभ्रष्ट, कायर, म्लेच्छ, पतित प्रादि नामों से चिढ़ाया जाता है। यह तो हुई इस लोक की दुर्दशा / परलोक में भी उसकी दुर्दशा कम नहीं होती। संयमभ्रष्ट व्यक्ति जब अपना जीवन दुःखपूर्वक समाप्त करके परलोक में जाता है तब उसकी अधर्म-भावना के कारण उसे अच्छा स्थान नहीं मिलता। उसे स्थान मिलता हैनरक और तिर्यञ्चगति में। नरक में तो उसे पलक झपकने तक को भी सुख नहीं मिलता / वह सतत हाय-हाय और मरा-मरा की करुण पुकार में समग्र जीवन बिताता है / (3) जिस मनुष्य ने श्रमणजीवन का परित्याग कर मुनिधर्म की अपेक्षा न रखते हुए प्रत्यासक्तिपूर्वक विषय-भोगों का सेवन किया है तथा अज्ञानतापूर्वक हिंसाकारी कृत्य किये हैं, वह असन्तुष्ट एवं अतृप्त होकर दुःखपूर्वक मर कर नरकादि दुर्गतियों में जाता है, जो स्वभावतः भयंकर एवं असह्य दुःखप्रद हैं। घोरातिघोर दुःखों से पीड़ित मनुष्य भी वहाँ जाना नहीं चाहता। फिर नरक के घोरातिघोर दुःख भोगने के बाद भी दुःखों से पिण्ड नहीं छूटता, क्योंकि दुःखों से छुटकारा दिलाने वाली जिनधर्मप्राप्तिरूप बोधि है, जो उसे मिथ्यात्वमोहनीय आदि अशुभकर्मोदयवश सरलता से प्राप्त नहीं हो सकती, यह प्रवचनविराधना एवं संयम भ्रष्टता का कटुफल है। अतः थोड़े से क्षणिक विषयसुखों के लिए संयमपरित्याग करना कितनी भयंकर भूल है ? 14 कठिन शब्दों के अर्थ-सिरिओ-श्रियः-(१) श्रामण्य (चारित्र) रूपी लक्ष्मी या शोभा से अथवा (2) तपरूपी लक्ष्मी से / अप्पतेयं-अल्पतेज, निस्तेज / दुन्विहियं : दुविहित-जिसका आचरण या विधि-विधान दुष्ट होता है, अथवा सामाचारी का विधिवत् पालन न करने वाला भिक्षु / होलंतिलज्जित करते हैं, कदर्थना करते हैं, अवहेलना करते हैं। संभिन्न वित्तस्स-संभिन्नवृत्त-जिसका शील या चारित्र खण्डित हो गया है / प्रधम्मो-अधर्म-अधर्मजनक / अयसो-अयश-अपयश होता है / जैसेयह देखो-भूतपूर्व श्रमण है, धर्म से पतित है, इस प्रकार व्यंगपूर्वक दोषकीर्तन करना अयश कहलाता है। यश का अर्थ संयम भी है, इसलिए संयम में पराक्रम की न्यूनता-मन्दता को भी अयश-अल्पयश कहा है / पसज्झचेतसा-प्रसह्यचेतसा--प्रसह्य शब्द के अनेक अर्थ हैं हठात्, बलपूर्वक, प्रकट, वेगपूर्वक प्रादि / यहाँ भावार्थ होगा-विषयभोगों के लिए हिंसा, असत्यादि में मन को अभिनिविष्ट करके, प्रबल वेगपूर्ण चित्त से। प्रणभिज्झियं- अनभिध्यातां-अनिष्ट, अनभिलषित या अनिच्छनीय / बोहोअर्हद्धर्म की उपलब्धि, बोधि / 14. दशवकालिक, पत्राकार (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.), पृ. 1025 से 1030 तक 15. हारि. वृत्ति, पत्र 276-277; जिनदासचूर्णि, पृ. 364; अगस्त्यचणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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