________________ प्रथम चूलिका : रतिवाक्या] [407 (4) चतुर्थ चिन्तन एवं प्रेरणा---प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए 556 वी गाथा में कहा गया है कि बुद्धिमान् साधक इस अध्ययन में उक्त वर्णन पर भलीभांति पूर्वापर विचार करके तथा उसकी ज्ञानादि प्राप्ति के उपायों (साधनों) को जान कर तीन गुप्तियों से गुप्त होकर जिनवचनों (अथवा जिनशासन) पर दृढ़ रहे अथवा अर्हन्तों के धर्मोपदेश द्वारा प्रात्मकल्याण करे। इसका अन्तिम फल मोक्ष-प्राप्ति है। सारांश-इस अध्ययन में प्रतिपादित समग्र चिन्तन तथा पूर्वोक्त 18 स्थानों में प्रतिपादित विचार संयम से डिगते हुए जीवों को पुनः संयम में स्थिर करने वाले हैं। 'अविस्सई' आदि पदों के अर्थ-अविस्सई-अपेष्यति-अवश्य ही चली जाएगी। जोवियपज्जवेण-जीवितपर्यवेण–जीवितपर्याय का यहाँ प्राशय है जीवन का अवसान (मरण)। किलेस. वत्तिणो-एकान्त क्लेशवृत्ति वाले / अथवा क्लेशमय जीवनवृत्त वाले। उर्वत वाया-प्रबल वेगपूर्ण गति से आता हुआ प्रचण्ड महावायु / प्रायं उवायं : आयं उपायं-आय का अर्थ है-लाभ–सम्यक् ज्ञान, विज्ञान आदि की प्राप्ति, और उपाय का अर्थ है-उन (ज्ञानादि) को प्राप्त करने के (विनय) आदि साधन / जिणवयणमहिद्विज्जासि -जिनवचनों का आश्रय ले / भावार्थ यह है कि जिनवचनानुकूल क्रिया करके स्वकार्य सिद्ध करे। // रतिवाक्या : प्रथम चूलिका समाप्त / / [ // ग्यारहवाँ रतिवाक्या नामक अध्ययन सम्पूर्ण // ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org