________________ प्रथमा चूलिका : रतिवाक्या] [397 मणुयाण जीविए..."चंचले–मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर हैं। रोगादि उपद्रवों के कारण देखते ही देखते नष्ट हो जाता है, अतः क्षणविनाशी मानवीय जीवन के तुच्छभोगों के लिए मैं क्यों अपना साधुजीवन छोड़ कर गृहवास स्वीकार करू ? बहुं मे पावकम्मं कडं : तात्पर्य--मैंने बहुत ही पापकर्म किये हैं, जिनके उदय से मेरे शुद्ध हृदय में इस प्रकार के अपवित्र विचार उत्पन्न होते हैं / जो पुण्यशाली पुरुष होते हैं, उनके विचार तो चारित्र में सदैव स्थिर एवं दृढ़ रहते हैं / पापकर्मों के उदय से ही मनुष्य अधःपतन की ओर जाता है। वेयइत्ता मोक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता-प्रमाद, कषाय आदि के वशीभूत हो कर मैंने पूर्वजन्म में जो पापकर्म किये हैं, उन्हें भोगे बिना मोक्ष नहीं मिल सकता / कृतको को भोगे बिना दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता, अतः क्यों न मैं इस आई हुई विपत्ति को भोग ? इसे भोगने पर ही दु:खों से छुटकारा मिलेगा / जैन सिद्धान्त के अनुसार-बद्ध कर्म की मुक्ति के दो उपाय हैं--(१) स्थिति परिपाक होने पर उसे भोगने से, अथवा (2) तपस्या द्वारा कर्मों को क्षीणवीर्य करके नष्ट कर देने से / सामान्यतया कर्म अपनी स्थिति पकने पर फल देता है, परन्तु तप के द्वारा स्थिति पकने से पूर्व ही कर्मों की उदीरणा करके कर्मफल भोगा जा सकता है। इससे कर्म की फलशक्ति मन्द हो जाती है और वह फल प्रदान के बिना भी नष्ट हो जाता है / अतः उत्कृट तप द्वारा कर्म की स्थिति का परिपाक होने से पूर्व ही क्यों न मैं अपने पूर्वकृत कर्मों को क्षय कर दू और अक्षय मोक्षसुख का भागी बनू! यह इस पंक्ति का रहस्य है। उत्प्रवजित के पश्चात्ताप के विविध विकल्प भवइ य एत्थ सिलोगो५४३. जया य चयई धम्म अणज्जो भोगकारणा / से तत्थ मुच्छिए बाले आयइं नावबुज्झई // 2 // 544. जया ओहाविओ होइ, इंदो वा पडिओ छमं। सय्वधम्मपरिभट्ठो स पच्छा परितप्पई // 3 // 2. (क) साति कुडिलं / पुणो पुणो कुडिलहियया प्रायेण भज्जो सातिबहला मणुस्सा। --अ. चू. (ख) न कदाचित् विभहेतवोऽमी, तद्रहितानां च कीदृक् सुखम् ? इति किं गृहाश्रमेण इति सम्प्रत्युपेक्षितव्यमिति / -हारि. वत्ति, पत्र 272 (ग) मातंकः सद्योघाती विचिकादिरोगः / संकल्पः इष्टानिष्टवियोगप्राप्तिजो मानस आतंकः / उपक्लेशा:-कृषिपाशुपाल्यवाणिज्याद्यनुष्ठानानुगता: पण्डितजनहिताः शीतोष्णश्रमादयो घृतलवणचिन्तादयश्चेति / प्रव्रज्या पर्यायः / -हारि. वृ. प. 273 घ) प्रायको सारीरं दुक्खं संकप्पो माणसं, तं च पियविप्पयोगमयं, संवाससोगभयविसादादिकमणेगहा संभवति / -जि. चू. पृ. 356 (ङ) परियातो समततो पुन्नागमणं, पध्वज्जा-सहस्सेव अवघ्भंसो परियातो। (च) दशवैकालिक. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.)। पृ.१००४ से 1008 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org