________________ 396] [दशवकालिकसूत्र राजा-महाराजा, धनाढय प्रादि मेरा सत्कार-सम्मान एवं भक्ति करते हैं. किन्त गह में जाने पर मुझे नीच मनुष्यों की सेवा, भक्ति, चापलूसी, खुशामद आदि करनी पड़ेगी, उनके असह्य वचन भी सहने पड़ेंगे। वंतस्स पडिआइयणं-जिन विषयभोगों का मैं वमन (त्याग) कर चुका हूँ, उनका गृहवास में जाकर पुन: प्रासेवन करना श्रेष्ठ जन का कार्य नहीं है। वमन किया हुआ तो कुत्ता, गीदड़ आदि नीच जीव ही ग्रहण करते हैं, प्रवजित होने से मैं श्रेष्ठ जन हूँ, अत: मेरे लिए त्यक्त विषयभोगों का पुनः सेवन करना उचित नहीं है। दुल्लहे गिहीणं धम्मे-जो व्यक्ति पहले से गृहवास में रहते हैं, वे तो श्रद्धापूर्वक थोड़ा-सा धर्माचरण कर लेते हैं, किन्तु जो साधुजीवन छोड़ कर गृहवास में जाते हैं, वे न घर के रहते हैं न घाट के / उनकी श्रद्धा धर्म से हट जाती है, उनके लिए गृहस्थी में रह कर धर्माचरण करना तो और भी दुष्कर है। अथवा गृहस्थ में पुत्र-कलत्रादि का स्नेहबन्धन पाश है। उस में फंसे हुए गृहस्थ से भी धर्माचरण होना दुष्कर है, प्रमादवश धर्मश्रवण भी दुर्लभ है। आयके का अर्थ है-शीघ्रघाती रोग। गहस्थवास में धर्मरहित व्यक्ति को या निर्धन व्यक्ति को ये हैजा आदि रोग बहुत जल्दी धर दबाते हैं और साधना एवं साधन के अभाव में तुरन्त ही ये जीवन का खेल खत्म कर देते हैं। संकप्पे से वहाय-अातंक शारीरिक रोग है और संकल्प मानसिक रोग। इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग से जो मानसिक आतंक होता है, उसे यहाँ संकल्प कहा गया है / क्षण-क्षण में होने वाली सुख-दु:खों की चोटों से मनुष्य गृहवास में सदा घायल, उदास एवं आहत रहता है / बुरा संकल्प भी एक दृष्टि से आध्यात्मिक मृत्यु है। शरीर छूटना तो भौतिक मरण है, दुःसंकल्प-विकल्प से प्रात्मा का पतन होना भी वास्तव में आध्यात्मिक मरण है। सोवक्के से गिहवासे निरुवक्केसे परियाए : भावार्थ-कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, आश्रितों का भरणपोषण, तेललवण-लकड़ी आदि जुटाने की नाना चिन्ताओं के कारण गृहवास क्लेशमय है, फिर आधि, व्याधि और उपाधि तथा आजीविका आदि का मानसिक सन्ताप होने के कारण गृहस्थवास उपक्लेशयुक्त है, जबाक मुनिपर्याय इन सभी चिन्ताओं और क्लेशों से दूर होने तथा निश्चिन्त होने से क्लेशमक्त है। पर्याय का अर्थ यहाँ प्रव्रज्याकालीन अवस्था या दशा अथवा मुनिव्रत है। 'बंधे गिहवासे मोक्खे परियाए' : तात्पर्य-गृहवास बन्धन रूप है, क्योंकि इसमें जीव मकड़ी की तरह स्वयं स्त्री-पुत्र-परिवार आदि का मोहजाल बुनता है और स्वयं ही उसमें फंस जाता है, जबकि मुनिपर्याय कर्मक्षय करके मोक्षप्राप्ति करने और बन्धनों को काटने का सुस्रोत है। सावज्जे गिहवासे प्रनवज्जे परियाए : भावार्थ-गृहवास पापरूप है, क्योंकि इसमें हिसा, झूठ, चोरी (करचोरी आदि), मैथुन और ममत्वपूर्वक संग्रह, परिग्रह आदि सब पापमय कार्य करने पड़ते हैं। इसके विपरीत मुनिपर्याय में उक्त पापजनक कार्यों का सर्वथा त्याग किया जाता है। प्रारम्भ, परिग्रहादि को इसमें कोई स्थान ही नहीं है ! बहुसाहारणा मिहोणं कामभोगा-गृहस्थों के कामभोग बहुत ही साधारण हैं, इसका एक अर्थ यह भी है कि देवों के कामभोगों की अपेक्षा मानवगृहस्थों के कामभोग बहुत नगण्य हैं, सामान्य हैं / दूसरा अर्थ यह है कि गृहस्थों के कामभोग बहुजनसाधारण हैं, उनमें राजा, चोर, वेश्या, आदि लोगों का भी हिस्सा है। इसलिए सांसारिक कामभोग बहुत ही साधारण हैं। पत्तेयं पुण्णपावंजितने भी प्राणी हैं, वे सब अपने-अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल स्वयं भोगते हैं / किसी के किये हुए कर्मों का फल कोई अन्य नहीं भोग सकता। स्त्रीपुत्रादि मेरे कर्मों के फल भोगने में हिस्सा नहीं बँटा सकते / फिर मुझे गृहवास में जाने से क्या प्रयोजन ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org