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________________ प्रथमा चूलिका : रतिवाक्या] [395 का अर्थ है-संयम का परित्याग करके वापस गृहस्थाश्रम में चला जाना। अवधावन की अभिलाषा जिसके मन में उठी है, वह अवधावनोत्प्रेक्षी है। अणोहाइएणं-अनवधावितेन-परन्तु अभी तक संयम छोड़ कर गृहस्थवास में गया नहीं है। पोय-पडागा-पोतपताका या पोतपटागार--(१) जहाज की पताका अर्थात्-वस्त्र का बना हुआ पाल / जिसके तानने पर नौका लहरों से क्षुब्ध नहीं होती, उसे अभीष्ट स्थान की ओर ले जाया जा सकता है। संपडिलेहियव्वाइं-सम्प्रतिलेखितव्यानि-सम्यक् प्रकार से मननीय-विचारणीय हैं। तात्पर्य यह है कि इन अठारह स्वर्ण-सूत्रों का गहरा चिन्तन-मनन करने से संयम से अस्थिर हुमा मन स्थिर हो जाता है। हे मो! हे और भो ! ये दोनों शब्द वृत्तिकार के मतानुसार शिष्यों को आमंत्रित करने के लिए प्रयुक्त हैं, चूणिकार के मतानुसार दोनों आदरसूचक सम्बोधन हैं तथा अन्य व्याख्याकारों के अनुसार ये दोनों विस्मयसूचक या अपनी प्रात्मा के लिए सम्बोधन हैं। दुप्पजीवी: दुष्प्रजीवी : दो अर्थ-(१) जीविका बड़ी मुश्किल से चलाते हैं तात्पर्य यह है कि समर्थ व्यक्तियों के लिए भी जीविका (जीने के साधन) जुटाना कठिन हैं। दूसरों की तो बात ही क्या ? (2) दुःखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। जिसके पास गृहस्थाश्रम योग्य कोई भी सामग्री नहीं है, उसे तो गृहस्थवास में विडम्बना और दुर्गति के अतिरिक्त और क्या मिल सकता है ? लहुस्सगा इत्तरिया : लघुस्वका इत्वरिका : भावार्थ-मानवीय कामभोग लघु अर्थात्-तुच्छ या असार हैं, अर्थात्- सर्वथा सारहीन हैं और इत्वरिक यानी अल्पकालिक हैं, देवों के समान वे चिरस्थायी नहीं हैं।' 'साइबहुला' आदि पदों का तात्पर्य-साइबहुला-सातिबहुल : दो अर्थ-(१) मायाबहुल (2) अविश्वस्त प्रचुर / बहुत-से मानव इस काल में छली-कपटी एवं विश्वासघाती हैं, उन मनुष्यों में रह कर सुख कैसे मिल सकता है ! वे तो प्रायः दुःख ही देते रहते हैं। न चिरकालोवट्ठाइ-न चिरकालोप. स्थायि-किसी कारणवश उत्पन्न हुए ये दुःख चिरस्थायी नहीं हैं। ये भी रथ के चक्र की तरह बदलते जाते हैं / फिर इस कष्ट को सहने से कर्मों की निर्जरा और शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी। नहीं सहन किया तो मरने के बाद नरकादि दुर्गतियों में जाना होगा, जहाँ इससे भी अनेकगुना कष्ट भोगना पड़ेगा। ओमजणपुरक्कारे-अवमजन-पुरस्कार : आशय-यहाँ संयमी जीवन में स्थिर रहने से तो 1. (क) दुक्खं दुविधं-शारीरं माणसं वा। तत्थ सारीरं सीउण्हदसमसगाइ, माणसं इत्थी-निसीहियसकारपुर क्कारपरीसहादोणं / एवं दुविहं दुक्खं उत्पन्न जस्स तेण उप्पण्णदुक्खेण :" अवहावणं अवसप्पणं अतिक्कमणं, संजमातो अवक्कमणमवहावणं। जाणवत्त-पोतो, तस्स पडागा-सीतपडो, पोतोऽवि सीतपडेण विततेण वीचिहि ण खोभिज्जति, इच्छितं च देसं पाविज्जति / हं भोत्ति सम्बोधनद्वयमादराय / दुप्पजीवी नाम दुक्खेण प्रजीवणं, आजीवित्रा। -जिनजास, चणि पृ. 353 (ख) हं भोग-शिष्यामंत्रणे / दु.खेन-कृच्छ्ण प्रकर्षणोदारभोगापेक्षया जीवितु शीला दुष्पजीविनः / –हारि. वृत्ति, पत्र 272 / / (ग) जाणवत्तं पोतो, तस्स पडागारो-सीतपडो।"".."दुक्खं एत्थ पजीवसाधगाणि संपातिज्जंतीति ईसरेहि कि पुण सेसेहिं ? रामादियाण चिताभरेहि, बाणियाण भंडविणएहि, सेसाण पेसणेहि य जीवणसंपादणं दुक्खं / लहसगा-इत्तरकाला कदलीगभवदसारमा जम्हा मिहत्थभोगे चतिऊण रति 'कणइ धम्मे / ' -~-अ. चू. पृ. (घ) दशवे. (आचार्यश्री प्रात्मारामजी म.) पृ. 999 Jain Education international For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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