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________________ दसवां अध्ययन : स-भिक्षु] [387 ध्यान छोड़ कर धर्म-शुक्ल ध्यान में लीन रहता है, वह अध्यात्मरत कहलाता है / भिक्षु का सर्वांगीण संयमाचरण–साधु-साध्वियों के पास मन, वचन और काया रूप तीन साधनों के अतिरिक्त वस्त्र, पात्र, आहार, शय्या-प्रासन प्रादि संयमचर्या के लिए गृहस्थों से प्राप्त साधन होते हैं / शरीर के साथ ही जाति, कुल, बल, रूप, तप, लाभ, श्रुत, वैभव (पद, प्रतिष्ठा ऋद्धि: सिद्धि, लब्धि आदि) भी सम्बद्ध होने से प्रकारान्तर से ये भी साधन ही हैं। सच्चा भिक्षुवर्ग इनके प्रति किस-किस प्रकार से संयम रखता है ?, यह 536 वी गाथा से लेकर 541 वी गाथा तक में ध्वनित किया गया है / जैसे—-मुनि मर्यादित वस्त्र रखता है, किन्तु उन पर ममता- मूर्छा और गृद्धि हो तो असंयम हो सकता है, अत: मुनि उन वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों पर भी अमूर्छा और अगृद्धि रखता है, यही उसका उपधिसंयम है। भिक्षा से प्राप्त निर्दोष आहार में भी मनोज्ञ आहार पर आसक्ति, लोलुपता, सरस आहार की लालसा नहीं रखता, न ही उनका संचय करके रखता है, न क्रयविक्रय करता है तथा उसे सत्कार-सम्मान, पूजा, प्रतिष्ठा, लब्धि आदि पाने की लालसा या प्राप्त विभूतियों के प्रति भी कोई प्रासक्ति नहीं होती और न जाति, रूप, श्रुत आदि साधनों का मद करके वह असंयम की वद्धि करता है। अपनी वाणी रूप साधन का उपयोग वह दूसरों की निन्दा, चुगली, अथवा किसी की भर्त्सना करने में नहीं करता, वह वाणी का निरोध करेगा, अथवा प्रयोजन होने प वाणी से दूसरों को शुद्ध धर्म का उपदेश देता है, अथवा धर्म से डिगते हुए साधकों को धर्म में स्थिर करता है, किन्तु किसी प्रकार की हँसी-मजाक करने या हास्यकौतुक बताने में वाणी का उपयोग नहीं करता / शरीररूप महत्त्वपूर्ण साधन से जब तक धर्म-पालन, संयम-पालन होता है तब तक साधक उसका यतनापूर्वक सन्मार्ग में उपयोग करता है। किन्तु जब शरीर अत्यन्त अशक्त, रुग्ण होकर धर्मपालन या संयमी जीवनयात्रा के लिए अयोग्य या अक्षम हो जाता है, तब उस पर ममत्व न रख कर शान्तिपूर्वक संलेखना एवं समाधिमरणपूर्वक उसे त्याग देने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता / यही आदर्श भिक्षु का सर्वांगीण सर्व क्षेत्रीय संयमाचरण हैं / '6 ज्ञान का फल संयम और त्याग है। इस कारण ज्ञानी का प्रथम चिह्न है संयम / संयमी स्वार्थ प्रवृत्ति से ऊपर उठ कर आत्मभाव में ही लीन रहता है। उहिम्मि अमुच्छिए प्रगढिए : प्राशय-मूर्छा और गृद्धि एकार्थक होते हुए भी कुछ अन्तर बताते हुए जिनदास महत्तर कहते हैं-यहाँ मूर्छा मोहग्रस्तता के अर्थ में और गद्धि प्रतिबद्धता के अर्थ में समझना चाहिए। उपधि आदि साधनों में मूच्छित रहने वाला साधक करणीय-प्रकरणीय का 15. (क) "हत्य-पाएहिं कुम्मो इव णिक्कारणे जो गुत्तो अच्छइ, कारणे पडिले हिय पमज्जिय वा वारं कुम्वइ, एवं कुव्वमाणो हत्थसंजो पायसंजनो भवइ / वायाए वि संजयो, कहं? अकुसलवइनिरोधं कुव्वइ, कुसलवइ-उदीरणं च कज्जे कुव्वइ / संजइंदिए नाम इंदियविसयपयारनिरोधं कुब्वइ, विसयपत्तेसु इंदियत्थेसु रागद्दोसविणिग्गहं च कुवति त्ति / अझप्परए नाम सोभणज्माणरए।" —जिन. चूणि, पृ. 345 (ख) दशवै.(आचार्य श्री आत्मारामजी म.) . 980 (क) वही, पृ. 981 से 992 तक (ख) दशव. (संतबालजी) पृ. 144 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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