________________ 386] [दशवकालिकसूत्र रहित है; जो क्रय-विक्रय और सन्निधि (संग्रहवृत्ति) से रहित है तथा सब प्रकार के संगों से मुक्त है, वही भिक्षु है / / 16 // [537] जो भिक्षु लोलुपता-रहित है, रसों में गद्ध नहीं है, (आहारार्थ) अज्ञात कुलों में (थोड़ी-थोड़ी) भिक्षाचरी करता है, जो असंयमी जीवन की आकांक्षा नहीं करता, जो ऋद्धि (लब्धि आदि), सत्कार और पूजा (की स्पृहा) का त्याग कर देता है, जो (ज्ञानादि में) स्थितात्मा है और (प्रासक्ति या) छल से रहित है, वही भिक्षु है // 17 / / {538] 'प्रत्येक व्यक्ति के पुण्य-पाप पृथक्-पृथक होते हैं, ऐसा जान कर, जो दूसरे को (यह) नहीं कहता कि 'यह कुशील (दुराचारी) है।' तथा जिससे दूसरा कुपित हो, ऐसी बात भी नहीं कहता और जो अपनी प्रात्मा को सर्वोत्कृष्ट मान कर अहंकार नहीं करता, वह भिक्षु है / / 18 / / [539] जो जाति का मद नहीं करता, न रूप का मद करता है, न लाभ का मद करता है और न श्रुत का मद करता है; जो सब मदों को त्याग कर (केवल) धर्मध्यान में रत रहता है, वही भिक्षु है // 19 // [540] जो महामुनि (दूसरों के कल्याण के लिए) आर्य-(शूद्ध धर्म-) पद का उपदेश करता है, जो स्वयं धर्म में स्थित (स्थिर) होकर दूसरे को भी धर्म में स्थापित (स्थिर) करता है, जो प्रव्रजित होकर कुशील-लिंग को छोड़ देता है तथा हास्य उत्पन्न करने वाली कुतूहलपूर्ण चेष्टाएँ नहीं करता, वह भिक्षु है // 20 // [541] अपनी आत्मा को सदा शाश्वत हित में सुस्थित रखने वाला पूर्वोक्त भिक्षु इस अशुचि (अपवित्र) और प्रशाश्वत देहवास को सदा के लिए छोड़ देता है तथा जन्म-मरण के बन्धन को छेदन कर अपुनरागमन नामक गति (सिद्धगति) को प्राप्त कर लेता है // 21 // - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--संयम में निरत : सद्भिक्षु-प्रस्तुत 7 सूत्र गाथा त्रों (535 से 541) में साधु संयम में किस प्रकार तल्लीन रहता है और संयम के फलस्वरूप वह अपने जन्म-मरण के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त होकर किस प्रकार अपुनरागमन स्थिति को प्राप्त करता है, यह बताया गया है। हत्थसंजए. आदि शब्दों की व्याख्या--जो हाथ-पैरों को कछुए की तरह संगोपन करके रखता है, प्रयोजन होने पर प्रतिलेखन, प्रमार्जन करके सम्यक् प्रवृत्ति करता है, वह हस्तसंयत एवं पादसंयत कहलाता है / वायसंजए-वाणी से संयत-जो अकुशल वचन का निरोध और कुशल वचन की उदी रणा करता है, वह वाकसंयत है। संजईदिए-जो श्रोत्र आदि इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त होने से रोकता है, प्रयोजनवश संयमकार्य में प्रवत्त होने देता है तथा अनायास विषय प्राप्त होने पर उनके प्रति राग-द्वेष नहीं करता, उसे इन्द्रिय-संयत कहते हैं / अज्झप्परए-अध्यात्मरत-देहाध्यास या देहासक्ति से ऊपर जो आत्महित या आत्मगुणों या आत्मभावों के चिन्तन में रत रहता है, अथवा जो आर्त्त-रौद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org