________________ दसवां अध्ययन : स-भिक्षु] [385 537. अलोलो* भिक्खू न रसेसु गिद्ध, उंछं चरे जीविय नाभिकखे / इड्डि च सक्कारण पूधणं च चए, ठियप्पा अणिहे जे, स भिक्खू // 17 // 538. न परं वएज्जासि 'अयं कुसीले', जेणऽन्नो कुप्पेज्ज न तं वएज्जा / जाणिय पत्तेयं* पुण्ण-पावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे, स भिक्खू // 18 // 539. न जाइमत्ते, न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते। मयाणि सव्वाणि विवज्जइत्ता, धम्मज्माणरए य जे, स भिक्खू // 19 // 540. पवेयए प्रज्जपयं महामुणी, धम्मे ठिओ, ठाक्यई परं पि। निक्खम्म बज्जेज्ज कुसीललिगं, न याविहस्सकुहए जे, स भिक्खू // 20 // 541. न देहवासं असुइं असासयं सया चए निच्चहिय-ठियप्पा / छिदित्तु जाई-मरणस्स बंधणं उबेइ भिक्खू अपुणरागमं+ गई // 21 // -त्ति बेमि। दसमं स भिक्खू प्रज्झयणं समत्तं // 10 // [535] जो (साधु) हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वाणी से संयत है, इन्द्रियों से संयत है. अध्यात्म में रत है, जिसकी अात्मा सम्यक रूप से समाधिस्थ है और जो सत्र त रूप से जानता है; वह भिक्षु है // 15 // [536] जो (साधु वस्त्रादि) उपधि (उपकरण) में मूच्छित (प्रासक्त) नहीं है, जो अगद्ध है, जो अज्ञात कुलों से भिक्षा की एषणा करता है, जो संयम को निस्सार कर देने वाले दोषों से पाठान्तर-* अलोल। *पत्तेय / 0 हासं कूहए, हासक्कूहए।+ प्रपूणागमं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org