SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 385] [दशवकालिकसूत्र विवेक नहीं कर पाता और गद्ध रहने वाला उनसे प्रतिबद्ध हो जाता है। अत: प्रादर्श भिक्षु उपधि में अमूच्छित और अमृद्ध रहता है / साथ ही वह किसी क्षेत्र या किसी गृहस्थ से प्रतिबद्ध नहीं होता। __ अन्नाय-उंछ पुल निप्पुलाए : विशेषार्थ-अज्ञात उंछ का आशय है-जो अज्ञात कुलों से भिक्षा करता है तथा पुल निप्पुलाए पुलाक-निष्पुलाक का भावार्थ है-संयम को सारहीन कर देने वाले दोषों से रहित / अथवा मूलगुण-उत्तरगुण में दोष लगा कर संयम को निस्सार न करने वाला / 8 सव्वसंगावगए : सर्वसंगापगत-संग का अर्थ यहाँ 'इन्द्रियविषय' किया गया हैं / अतः सर्वसंग अर्थात् समस्त इन्द्रियविषयों से रहित / अलोल-जो अप्राप्त रसों की लालसा नहीं करता, वह 'अलोल' है / सरस पदार्थों का त्याग करने के बाद भी अन्तर की गहराई में उन पदार्थों को वासना रह जाती है, जिसका त्याग करना ही वास्तविक त्याग है। इडिऋद्धि-ऋद्धि का अर्थ यहाँ योगजन्य विभूति अर्थात्-- वैक्रियल ब्धि प्रादि है / ठियप्पा: स्थितात्मा-जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थित होती है।" 'न परं वएज्जासि०' इत्यादि गाथा को व्याख्या--'पर' का अर्थ यहाँ गृहस्थ या वेषधारी है / क्योंकि प्रजित का पर--अप्रवजित होता है / जो गृहस्थ या वेषधारी है / दूसरे को 'यह दुराचारी है' ऐसा कहने से उसे चोट लगती है, अप्रीति उत्पन्न होती है, इसलिए गृहस्थ हो या वेषधारी अव्यवस्थित प्राचार वाला साधु हो तो भी 'यह कुशील है' इस प्रकार का व्यक्तिगत अारोप करना, अहिंसक मुनि के लिए उचित नहीं है। क्योंकि सबके अपने-अपने पुण्य-पाप हैं। सब अपने-अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं, जो अग्नि को हाथ में ग्रहण करता है, वही जलता है / यह जान कर आदर्श भिक्षु न तो दूसरे की अवहेलना करता है और न अपनी बड़ाई करता है / वस्तुत: परनिन्दा और 17. मुच्छासदो गिद्धिसहो य दोऽवि एगठा ।....."अहवा मुछिय-गढियाण इमो विसेसो भण्णइ / तत्थ मुच्छासदो मोहे"गढियसद्दो पडिबंधे दहब्वो। जहा--कोइ मुच्छिो तेण मोहकारणेण कज्जाकजं न याणइ, तहा सोऽवि भिक्खू उहिमि अज्झो ववष्णो मुच्छियो किर कज्जाकज्जन याणइ / तम्हा ण मुच्छिनो अमुच्छिनो, अगिद्धि प्रो अबद्धो (अपडिबद्धो) भण्णइ।...... -जिन. चूणि, पृ, 346 18. (क) जेण मूल गुण-उत्तरगुणपदेण पडिसेविएण णिस्सारो संजमो भवति, सो भावपुलायो। एत्थ भावपुलाएण अहिगारो / ' ' तेण भावपुलाएण निपुलाए भवेज्जा, णो तं कुवेज्जा, जेण पुलागो भवेज्ज त्ति / --जिन. चूर्णि, पृ. 346 (ख) "तं पुलएति-तमेसति एस अण्णायउंछपुलाए। मूलगुण-उत्तरगुणपडिसेवणाए निस्सारं संजमं करेंति, एस भावपुलाए तधा णिपुलाए।" ---अगस्त्यचूणि (ग) “पुलाक-निष्पुलाक' इति संयमासारतापाददोषरहितः।' -हारि. वृत्ति, पत्र 268 19. (क) “संगोत्ति वा इंदियथोत्ति वा एगट्ठा / " (ख) 'इदि-विउव्वणमादि / ' (ग) नाणदसणचरित्तेसु ठिो अप्पा जस्स सो ठियप्पा। --जिन. चूणि, पृ. 346 (घ) अलोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थनपरः। -हारि. वृत्ति, पत्र 268 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy