________________ 370] [दशवकालिकसूत्र चक्रवर्ती के समान होती है, जिसने तपोबल के साथ फलाकांक्षा को जोड़ कर भौतिक सुखसमृद्धि एवं भोगसामग्री तो बहुत प्राप्त की, किन्तु धर्म का बोध तथा धर्माचरण न हो सकने से अन्त में, नरक का मेहमान बनना पड़ा। अतः भगवान् महावीर ने कहा-निज्जरद्वाए तवमहिट्ठज्जाअर्थात्-कर्मनिर्जरा के लिए ही तप करना चाहिए / 'अन्नत्थ' प्रादि पदों के विशेषार्थ-- अन्नत्थ---अन्यत्र,-'छोड़ कर या अतिरिक्त / निरासएपौद्गलिक प्रतिफल की प्राशा-आकांक्षा से रहित / ' प्राचारसमाधि के चार प्रकार 517. चउबिहा खलु आयारसमाही भवइ। तं जहा–नो इहलोगट्टयाए प्रायार.. महिज्जा 1, नो परलोगट्टयाए प्रायारमहिज्जा 2, नो कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्टयाए पायारमहिज्जा 3, नऽन्नत्थ प्रारहंतेहि हेहि आयारमहिट्ठज्जा चउत्थं पयं भवइ 4 // 11 // 518. भवइ य एत्थ सिलोगो-- जिणवयणरए अतितिणे पडिपुण्णाययमाययट्टिए। आयार-समाहि-संवुडे भवइ य दंते भावसंधए 4 / / 12 // 517] आचारसमाधि चार प्रकार की है; यथा-(१) इहलोक के लिए प्राचार का पालन नहीं करना चाहिए, (2) परलोक के निमित्त प्राचार का पालन नहीं करना चाहिए, (3) कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए भी प्राचार का पालन नहीं करना चाहिए, (4) पाहतहेतुओं के सिवाय अन्य किसी भी हेतु (उद्देश्य) को लेकर प्राचार का पालन नहीं करना चाहिए, यह चतुर्थ पद है / / 11 / / [518] यहाँ प्राचार-समाधि के विषय में एक श्लोक है 'जो जिनवचन में रत होता है, जो क्रोध से नहीं भन्नाता, जो (सूत्रार्थ-ज्ञान से) परिपूर्ण है और जो अतिशय मोक्षार्थी है, वह मन और इन्द्रियों का दमन करने वाला (दान्त) मुनि प्राचार. समाधि द्वारा संवृत होकर (ग्रासवनिरोध करके अपनी प्रात्मा को) मोक्ष के अत्यन्त निकट करने वाला होता है / / 12 / / _ विवेचन-प्राचार-समाधि के सूत्र-प्रस्तुत दो सूत्रों (517-518) में प्राचार-समाधि को प्राप्त करने के लिए विभिन्न भौतिक प्रयोजनवश आचार-पालन का निषेध करते हुए एकमात्र आहत-हेतुओं (आईत्-वीतराग-पद-प्राप्ति के उद्देश्य) से आचार-पालन का विधान किया गया है। 6. 'परेहि गणसंसद्दणं कित्ती, लोकव्यापी जसो वष्णो, लोके विदितया सद्दे, परेहिं पूर (य) णं सिलोगो।' ---अगस्त्यणि “सर्व दिव्यापी साधुवाद: कीति:, एकदिव्यापी वर्णः, अद्ध दिग्यापी शब्दः, तत्स्थान एव श्लाघा / निराशोनिष्प्रत्याश इहलोकादिषु / " -हारि. वृत्ति, पत्र 257 7. अन्नत्थसद्दी परिवज्जणे वइ / 'निग्गता प्रासा अप्पसत्था जरस सो निरासए।' -जिन, चणि, पृ. 328 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org