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________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि] 516. भवइ य एत्थ सिलोगो विविहगुण-तवोरए य निच्चं भवइ निरासए निज्जरहिए। तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, जुत्तो सया तबसमाहिए // 10 // [515] तप:समाधि चार प्रकार की होती है / यथा (1) इहलोक (वर्तमान जीवन के भौतिक लाभ या तुच्छ विषयभोगों को वाञ्छा) के प्रयोजन से तप नहीं करना चाहिए। (2) परलोक (पारलौकिक भौतिक सुखों या भोगासक्ति-विषयक लाभों) के लिए तप नहीं करना चाहिए। (3) कीति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। (4) (कर्म----) निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए, यह चतुर्थ पद है / / 6 / / [516] सदैव विविध गुणों वाले तप में (जो साधक) रत रहता है, (जो इहलौकिक, पारलौकिक, किसी भी भौतिक-पौद्गलिक प्रतिफल की) आशा नहीं रखता; (जो केवल) कर्मनिर्जरार्थी होता हैं; वह तप के द्वारा पूर्वकृत कर्मों का क्षय कर डालता है और सदैव तप:समाधि से युक्त रहता है / / 10 / / विवेचन–तपासमाधि संबंधी सूत्र-प्रस्तुत दो सूत्रों ( 515-516 ) में तपःसमाधि को प्राप्त करने के लिए भौतिक प्रयोजनवश तपश्चरण का निषेध करते हुए एकान्त कर्मक्षय के उद्देश्य से तपश्चरण का विधान किया ग तपश्चरण के लिए निषिद्ध उद्देश्य-इहलोगट्टयाए-परलोगट्टयाए-तपस्या का उद्देश्य इहलौकिक या पारलौकिक नहीं होना चाहिए। साधक को ऐहिक या पारलौकिक सुखसमृद्धि, भोगोपभोग या किसी सांसारिक स्वार्थसिद्धि की प्राशा से तप नहीं करना चाहिए। यथा-इस तप से मुझे तेजोलेश्या तथा प्रामोंषधि आदि लब्धि या भौतिकसिद्धि, वचनसिद्धि प्राप्त हो जाएगी, अथवा आगामी जन्म में मुझे देवलोक के दिव्य सुखों, देवांगनाओं अथवा सांसारिक ऋद्धि प्राप्त हो जाएगी / कित्ति-वण्ण-सद्द-सिलोगट्टयाए-तपस्या का उद्देश्य कीर्ति आदि भी नहीं होना चाहिए। कोति–दूसरों के द्वारा गुणकीर्तन, अथवा सर्वदिग्व्यापी यशोवाद, वर्ण-लोकव्यापी या एकदिग्व्यापी यशोवाद; शब्द--लोकप्रसिद्धि अथवा अर्द्ध दिग्व्यापी यश, श्लोक-ख्याति अथवा उसी स्थान पर होने वाला यश अथवा प्रशंसा / तात्पर्य यह है कि पद, प्रतिष्ठा, पदोन्नति, कोति. प्रसिद्धि एवं प्रशंसा स्तुति, प्रशस्ति प्रादि को दृष्टि से साधक को तपश्चर्या नहीं करनी चाहिए। कर्मक्षय करके आत्मशुद्धि की दृष्टि से ही बारह प्रकार की तपश्चर्या करनी चाहिए / जो लोग किसी सांसारिक आशाआकांक्षा से प्रेरित होकर तप करते हैं, उनकी वे लौकिक-भौतिक कामनाएँ कदाचित् पूर्ण हो जाएँ किन्तु उन्हें कर्मों से सर्वथा मुक्तिरूप निर्वाणपद की प्राप्ति नहीं होती। उनकी दशा प्रायः ब्रह्मदत्त पाठान्तर- * इत्थ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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