________________ [वशवकालिक सूत्र [513] श्रुतसमाधि चार प्रकार की होती है। जैसे कि (1) 'मुझे श्रुत (प्राचारांगादि शास्त्रज्ञान) प्राप्त होगा,' इसलिए अध्ययन करना उचित है। (2) (शास्त्रज्ञान से) 'मैं एकाग्रचित्त हो जाऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। (3) (एकाग्रचित्ता से) मैं अपनी आत्मा को (आत्मधर्म में--स्व-भाव में) स्थापित करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए / (4) एवं (स्वधर्म में स्थित होकर) मैं दूसरों को (उसमें) स्थापित करूगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। यह चतुर्थ पद है / / 7 / / [514] इस (श्रुतसमाधि के विषय) में एक श्लोक है—(प्रतिदिन शास्त्राध्ययन के द्वारा सम्यक् ) ज्ञान होता है, चित्त एकाग्र हो जाता है, (अपने आत्मधर्म में) स्थिति होती है और दूसरों को (उसमें) स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत (शास्त्रों) का अध्ययन कर श्रुतसमाधि में रत हो जाता है / / 8 / / विवेचन--श्रुतसमाधि के सूत्र-प्रस्तुत दो सूत्रों (513-514) में शास्त्र अध्ययन करने के चार महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बताते हुए श्रुतसमाधि के चार सूत्रों का निरूपण किया गया है / शास्त्राध्ययन के चार प्रयोजन--(१) शास्त्रों का प्रतिदिन अध्ययन करते रहने से सैद्धान्तिक ज्ञान तथा प्राचार-व्यवहार का ज्ञान परिपक्व और अस्खलित हो जाता है। शास्त्रीय अध्ययन के बिना साधु-साध्वी गण जैनधर्म के सिद्धान्त, तत्त्वज्ञान और प्राचार-व्यवहार की बातें भलीभांति समझ नहीं सकते / बल्कि कभी-कभी शास्त्रज्ञान की अज्ञता के कारण भौतिक सुख-सुविधावादी पुस्तकें पढ़सुन कर स्वयं विपरीत मार्ग पर चल पड़ते हैं और दूसरों को भी उसी उन्मार्ग पर ले जाते हैं / (2) शास्त्र अध्ययन के बिना साधक का चित्त इधर-उधर विषयवासना की बातें सुनकर चंचल हो उठता है, परन्तु शास्त्रीय अध्ययन से उसका चित्त अपने ध्येय में एकाग्र हो जाता है। वह इधर-उधर भटकता नहीं। (3) शास्त्रीय अध्ययन करने से ही साधु-साध्वी अपने स्वधर्म में, पात्मिक गुणों में, अहिंसा-सस्यादि धर्मों में स्थिर रह सकते हैं। आकस्मिक विपत्ति, भय या प्रलोभन अथवा प्रतिष्ठा आदि का लोभ पाने पर उनका चित्त स्वधर्म और धैर्य से च्युत हो जाता है, वह पापवृत्ति की ओर भक जाते है / (4) अध्ययन न करने वाला जब स्वय स्वधर्म से भ्रष्ट-पतित हो जाता है, / अनेक क्रियाकाण्ड करते हए भी धर्म में स्थिर नहीं रहता, तब वह दूसरों को धर्म में कैसे स्थिर कर सकता है ? किन्तु जो स्वाध्यायशील होता है, वह ज्ञानबल से स्वयं स्वधर्म में स्थिर होता है, इसलिए धर्म से डिगते हुए अन्य साधकों को भी वह उसमें स्थिर कर देता है। इन चार कारणों से साधुसाध्वीगण अनेक प्रकार के शास्त्रों का अध्ययन करके श्रुतसमाधि में लीन हो जाते हैं। फलितार्थ यह है कि साधु-साध्वी को इन्हीं शुभ उद्देश्यों को लेकर शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए, प्रसिद्धि, पद-प्रतिष्ठा, प्रशंसा या अन्य किसी भौतिक स्वार्थसिद्धि के उद्देश्य से नहीं।" तपःसमाधि के चार प्रकार 515. चउब्धिहा खलु तवसमाही भवइ / तं जहा-नो इहलोगट्टयाए तवम हिट्ठज्जा 1, नो परलोगट्टयाए तवमहिज्जा 2, नो कित्ति-वण्णसद्द-सिलोगट्टयाए तवमहिज्जा 3, नऽन्नत्थ निज्जरट्टयाए तवमहिट्ठज्जा चउत्थं पयं भवइ 4 // 9 // 5. दशवे. (प्राचार्यश्री पात्मारामजी म.), पृ. 943-944 पाठान्तर- तवमहिदिठज्जा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org