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________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि [367 (1) [आचार्य या गुरु द्वारा अनुशासित किया हुआ (शिष्य) उनके अनुशासन-वचनों को सुनना चाहता है; (२)-अनुशासन (शिक्षा) को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करता है; (3) वेद (शास्त्रज्ञान) की आराधना करता है; (अथवा प्राचार्य के वचन के अनुसार प्राचरण कर उनकी वाणी को सार्थक करता है) और (४)—वह (गर्व से) आत्म-प्रशंसक (प्रात्मोत्कर्षकर्ता) नहीं होता; यह चतुर्थ पद है / // 5 // [512] इस (विषय) में श्लोक भी है (1) प्रात्मार्थी (या मोक्षार्थी) मुनि हितानुशासन सुनने की इच्छा करता है; (2) शुश्रूषा करता है-गुरु के अनुशासन को सम्यक रूप से ग्रहण करता है; (3) उस (अनुशासन) के अनुकूल आचरण करता है; (4) (मैं) विनयसमाधि में (प्रवीण हूँ, इस प्रकार के) अभिमान के उन्माद से उन्मत्त नहीं होता। विवेचन-विनयसमाधि के सूत्र-प्रस्तुत दो सूत्रों (511-512) में विनयसमाधि को जीवन में रमाने वाले साधक के चार सूत्रों का प्रतिपादन किया गया है। 'सुस्सूसई' आदि पदों के विशेषार्थ सुस्सूसइ-शुश्रूषा करता है—सुनने की इच्छा करता है, अथवा सेवा करता है, या सम्यक्प से ग्रहण करता है / वेयं वेद-श्रुतज्ञान या ज्ञान / पाराहइ. शास्त्र में जिस प्रकार कहा है, तदनुकूल आचरण-पाराधन करता है। आयटिए : आयतार्थिकमोक्षार्थी, मोक्षाकांक्षी। न य माणमएण मज्जइ-गर्व के उन्माद से मत्त नहीं होता / अत्तसंपग्गहिए-जिसकी आत्मा गर्व से संप्रगृहीत (अक्खड़ या अवलिप्त) हो / ' श्रुतसमाधि के प्रकार 513. चउन्विहा खलु सुयसमाही भवइ / तं जहा-'सुयं मे भविस्सइ' ति अज्झाइयवं भवइ 1, 'एगग्ग चित्तो भविस्सामि' ति अज्झाइयव्वं भवइ 2, “अप्पाणं ठावइस्सामि' ति प्रज्झाइयब्ध भवइ 3, 'ठिओ परं ठावइस्सामि' ति अज्झाइयव्वं भवह चउत्थं पयं भवइ 4 // 7 // 514. भवइ य एत्थ सिलोगो नाण 1 मेगगचित्तो 2 य ठिमो 3 ठावयई परं 4 / सुयाणि य अहिज्जित्ता रमो सुयसमाहिए // 8 // 3. (क) आयरिय-उवझायादग्रो य पादरेण हिमोवदेसगत्ति काऊण सुस्सूसइ / वेदो नाणं भण्णइ / तत्थ णं जहा भणितं तहेव कुव्वमाणो तमारायइ ति। ---जिन. चूर्णि, पृ. 327 (ख) शुश्र पतीत्यनेकार्थत्वाद् यथाविषयमवबुध्यते / वेद्यतेऽनेनेति वेदः- तज्ञानम् / अाराधयति... ''यथोक्ता नुष्ठानपरतया सफलीकरोति। —हारि, वृत्ति, पत्र 256 (ग) संपग्गहीतो गब्वेण जस्स अप्पा सो अत्तसंपग्गहितो। --अगस्त्यचणि अत्त ककरिसं करेइ ति, जहा विणीयो (हं) जहुत्तकारी य एवमादि। -जिन. चूणि, पृ. 326 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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