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________________ [दशवकालिकसूत्र [506] जिन-(प्ररूपित) धर्म-सिद्धान्त (आगम) में निपुण, अभिगम (अतिथि साधुओं की सेवा अथवा विनयप्रतिपत्ति) में कुशल मुनि इस लोक में सतत गुरु को परिचर्या (सेवा) करके पूर्वकृत (कर्म) रज और मल को क्षय कर भास्वर (प्रकाशमयी) अतुल (अनुपम) सिद्धि गति को प्राप्त करता है / / 15 / / -~-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-फलश्रुति--इस उपसंहारात्मक गाथा में विनयवान् साधु को क्रमश: सिद्धि गतिप्राप्ति रूप फलश्रुति बताई गई है। __'पडियरिय' आदि पदों के विशेषार्थ-पडियरिय-परिचर्य-विधिपूर्वक आराधना, सेवाशुश्रूषा या भक्ति करके / अभिगमकसले--अतिथि साधुओं तथा प्राचार्यो का आदर-सम्मान व सेवाभक्ति करने में दक्ष / रयमलं-रजोमलं--प्राश्रवकाल में कर्म 'रज' कहलाता है और बद्ध, स्पृष्ट और निकाचित काल में 'मल' कहलाता है। // नवम अध्ययन : विनय-समाधि : तृतीय उद्देशक समाप्त / 5. (क) 'परिचर्य'-विधिना आराध्य / 'अभिगमकुशलो' लोकप्राधूर्णकादिप्रतिपत्तिदक्षः / __ --हारि. वृत्ति, पत्र 255 (ख) 'जधा जोगं सुस्सुसिऊण पडियरिय।' पाश्रवकाले रयो, बद्ध-पुट ठ-निकाइयं कम्म मलो। --अगस्त्यचूर्णि (ग) जिणोबइठेण विणएण पाराहेऊण ! अभिगमो नाम साधणमायरियाणं जा विणयपडिवत्ती सो अभिगमो भण्णइ, तंमि कुसले। --जिनदासचूणि, पृ. 324 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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