________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि) [363 अथवा--किसी व्यक्ति को दुर्वचन से एक बार लज्जित करना, दुष्ट कहना या निन्दित करना हीलना है और बार-बार दुर्वचन कह कर लज्जित करना, दुष्ट कहना या निन्दित करना खिसना है। माणिआ : भावार्थ--जो शिष्यों द्वारा विनयभक्ति प्रादि से सम्मानित होते हैं। निवेसयंति-श्रेष्ठ स्थान में स्थापित करते हैं / चरे-तदनुसार आचरण करते हैं। विनीत साधक को क्रमशः मुक्ति की उपलब्धि 506. गुरुमिह सययं पडियरिय मुणी, जिणवयनिउणे अभिगम कुसले / धुणियरयमलं पुरेकर्ड, भासुरमउलं गई गय.॥ 15 // –त्ति बेमि विणय-समाहीए तइयो उद्देसो समत्तो // 6.3 // 4. (क) जाति-सुत-थेरभूमीहितो परियागथेरभूमिमूरिसेंतेहिं विसेसिज्जति, डहरा वि जो वयसा परियायजेट्टा पन्बज्जामहल्ला / उवातो नाम प्राणानि सो। -अगस्त्य च., पृ. (ख) 'अवपातवान'-वंदनशीलो निकटवर्ती वा / यापनार्थ संयमभारोवाहि-शरीरपालनाय, नाऽन्यथा / -हारि. वृत्ति, पत्र 253 (ग) जवणठ्ठया णाम जहा सगडस्स अभंगो जत्तत्थं कीरइ, तहा संजमजस्तानिव्वहणत्थं पाहारेयव्बंति ! ___जिन. चूर्णि, पृ. 319 (घ) अन्नातं-जं न मित्त-सयणादि (णातं)। तमेव समुदाणं पूव-पच्छा-संथवादीहिं ण उप्पादियमिति...." अन्नातउंछ / भावुछ अन्नातमेसणासुद्धमुपपातियं / -अगस्त्यचूणि (ङ) 'अज्ञातोञ्छ'-परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् भावोञ्छं गृहस्थोद्धरितादि / हारि. वृत्ति, पत्र 253 (च) परिदेवयेत-खेदं याथात् यथा-मन्दभाग्योऽहम, अशोभनो वाऽयं देश इति / बिकत्थते-श्लाघां करोति-- सपुण्योऽहं, शोभनो वाऽयं देश इति / अल्पेच्छता-अमूच्र्छया परिभोगोऽतिरिक्ताऽग्रहणम् वा। -हारि. वृत्ति, पत्र 253 (छ) कण्णं सरंति पावंति कण्णसरा, अधवा सरीरम्स दुस्सहमायुधं सरो तहा ते कण्णस्स एवं कृण्णसरा / --प्र. चूर्णि (ज) कर्ण सरान---कर्णगामिनः / सूद्धराः सुखेनैवोदध्रियंते बर्णपरिकर्म च क्रियते / तथाश्रवणद्वेषादिनेह परत्र च वैरानुबन्धीनि भवन्ति / —हारि. वृत्ति, पत्र 253 (झ) उक्कोसेसु आहारादिषु अलुद्धो भवई, अहवा जो अपणो वि देहे अपडिबद्धो सो अलोलुनो भण्णइ / कुहगं इंदजालादीयं न करे इत्ति अक्कुहए त्ति। अदीवित्ती नाम आहारोवहिमाइसु अलब्भमाणेसु णो दीणभावं गच्छइ, तेसु विरूवेसु लद्ध सु वि प्रदीणभावो भवइत्ति। -जिन. चूर्णि, पृ. 322 (अ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 459 'घरत्येण अण्ण तिथिएण वा मए लोगमज्झे गूणमत्तं भावेज्जासि त्ति एवं णो भावयेदेतसि वा कंचि अप्पणा णो भावये, अहमेवं गुण इति अप्पणा वि ण भावितप्पा। -अगस्त्यचूर्णि - (ट) तहा नडनट्टगादिसु णो कूउहलं करेइ। -जिन. चूणि, पृ. 322 (ठ) दशव. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.), पत्राकार, पृ. 925 से 927 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org