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________________ [वशवकालिकसूत्र विनय-प्रयोग का मुख्य प्रयोजन : आचारप्राप्ति-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, इन पंचाचारों की प्राप्ति के लिए गुरु आदि के प्रति विनय करना चाहिए, अन्य किसी लौकिक प्रयोजन, अर्थलाभ, पूजा-प्रतिष्ठा प्रादि के लिए नहीं। इसीलिए यहाँ कहा गया है—'आयारमट्ठा विणयं पउंजे। ___परियायजेट्टा' आदि पदों की व्याख्या-ज्येष्ठ' यहाँ स्थविर के अर्थ में प्रतीत होता है। स्थविर तीन प्रकार के होते हैं---जाति-(वय:) स्थविर, श्रुतस्थविर और पर्याय-(दीक्षा) स्थविर / जाति और श्रुत से ज्येष्ठ न होने पर भी पर्याय से ज्येष्ठ हो, उसके प्रति विनय का प्रयोग करना चाहिए / ओवाय : दो रूप : दो अर्थ-(१) उपपात-समीप अथवा प्राज्ञा / (2) अवपात-वन्दन और सेवा प्रादि / जवणट्टया-यापनार्थ-संयमभार को वहन करने वाले शरीर को पालन करने के लिए, अथवा जीवनयापन करने के लिए। जैसे यात्रा के लिए गाड़ी के पहिये में तेल दिया जाता है, वैसे ही संयमयात्रा के निर्वाह के लिए आहार करना चाहिए / अन्नाय-उंछ : प्रज्ञात-उंछ : दो अर्थ(१) अज्ञात-अपरिचित कुलों का उंछ (भिक्षाचर्या) और (2) अपना पूर्व (मातृपितृपक्षीय) परिचय और पश्चात् (श्वसुरपक्षीय) परिचय दिये बिना प्राप्त (अज्ञात) उंछा / परिदेवएज्जा-परिदेवन करना, खेद या विलाप करना, कोसना / जैसे-मैं कितना मंदभागी हूँ कि आज भिक्षा ही न मिली। या इस गाँव के लोग अच्छे नहीं हैं। विकत्थयइ-विकत्थन करना--- श्लाघा करना, अपनी डींग हांकना कि 'मैं कितना भाग्यशाली हूँ, मेरे पुण्य से ऐसा आहार मिला है।' अप्पिच्छया--अल्पेच्छता : दो अर्थ (1) प्राप्त होने वाले पदार्थों पर मूच्र्छा न करना, (2) आवश्यकता से अधिक लेने की इच्छा न करना / कण्णसरे : दो अर्थ -(1) कानों में प्रवेश करने वाले, या (2) कानों में चुभने वाले बाण जैसे तीखे / सुउद्धरा-जो सुखपूर्वक निकाले जा सकें। वेराणुबंधोणि-वैरानुबंधी---अनुबन्ध कहते हैं—परम्परा या सातत्य को / कटुवाणी वैर-परम्परा को आगे से आगे बढ़ाने वाली है, इसलिए इसे वैरानुबन्धिनी कहते हैं / अलोलुए : अलोलुप-आहार, वस्त्र आदि पर लुब्ध न होने वाला, स्वशरीर में भी प्रतिबद्ध न रहने वाला / अक्कुहए-यंत्र, मंत्र, तंत्र प्रादि ऐन्द्रजालिक प्रपंचों में न पड़ने वाला / प्रदीण वित्तीजिसमें दीनवृत्ति न हो, दीनवृत्ति के दो अर्थ हैं-(१) अनिष्टसंयोग और इष्टवियोग होने पर दीन हो जाना, (2) दीनभाव से गिड़गिड़ा कर याचना करना / नो भावए नो विअ भावियप्पा-(१) न भावयेत् नाऽपि च भावितात्मा-जो न तो दूसरे को अकुशल भावों से भावित-वासित करे और न ही स्वयं अकुशल भावों से भावित हो। भावार्थ-जो दूसरों से श्लाघा नहीं करवाता, न स्वयं प्रात्मश्लाघा करता है। अथवा (2) नो भापयेद् नोऽपि च भापितात्मा-न तो दूसरों को डराए और न स्वयं दूसरों से डरे / अकोउहल्ले-प्रकौतूहल कुतूहल के मुख्यतया तीन अर्थ होते हैं--(१) उत्सुकता या आश्चर्यमग्नता, (2) क्रीड़ा करना-खेल-तमाशे दिखाना, अथवा (3) किसी आश्चर्यजनक वस्तु या व्यक्ति को देखने की उत्कट अभिलाषा / जो कुतूहलवृत्ति से रहित हो, वह अकुतूहल है / डहरंअल्पवयस्क / महल्लग-बड़ी उम्र का, वृद्ध / नो होलाएनो विश्र खिसइज्जा-हीलना और खिसना, ये दोनों शब्द एकार्थक होते हुए भी यहाँ दोनों के भिन्न-भिन्न अर्थ किये गए हैं। होलना का अर्थ किया गया है-दूसरे को उसके पूर्व दुश्चरित्र का स्मरण करा कर उसे लज्जित करना, उसकी निन्दा करना और खिसना है-ईर्ष्या या असूयावश दूसरे को दुर्वचन कहकर पीड़ित करना, झिड़कना / 3. पंचविधस्स णाणाइ-पायारस्स अट्ठाए, साधु आयरियस्स विणयं पउंजेज्जा। --जि. चू., पृ. 318 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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